उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘तो अब शुरू करे?’ गंगा ने अपनी बड़ी सी खोपड़ी हिलाकर पूछा। गंगा एक बार फिर से अपने जंगली बिल्ली वाले खतरनाक रूप में आ गयी थी। गंगा अब अपने आपको कन्ट्रोल नहीं कर पा रही थी असलियत में। मैंने जाना...
‘हाँ!’ देव ने मुस्की मारते हुए अनुमति दी। अब देव से भी इंतजार नहीं हो रहा था। अन्दर ही अन्दर वो भी उतावला हो रहा था। मैंने जाना...
साल के तीन सौ पैसठ दिन आक्रामक मुद्रा में रहने वाली गंगा भी चाहती थी कि आज.... देव उससे आँखें मिलाये, उसकी डार्क रेड कलर्ड ओठों की लाली चुराए, गंगा के बालों से खुश्बू पाले शैम्पू की सुगंध ले।
गंगा को जकड़ ले... वकड़ ले... कस के पकड़ ले, उससे साँप की तरह लिपट जाये। ये सब कुछ मैंने गंगा के बिना बताये ही समझ लिया कमरे का अनुकल वातावरण देखकर...
पर ये क्या? मुझे गजब का आश्चर्य हुआ।
गंगा से अब एक भी सेकेण्ड का इन्तजार ना हुआ और गंगा ने देव को बिस्तर पर पटक दिया लंगड़ी मार कर.... जैसे उस पर कोई डरावनी आत्मा सवार हो गयी हो।
टाँम्बरेडर की एंजेलीना जोली की तरह गंगा ने क्षण भर में देव के सारे कपड़े उतार दिये... बिना किसी शर्म हया के। जैसे दुर्योधन ने द्रौपदी का चीर हरण कर दिया। मैंने तुलना की....
फिर.. फिर.. फिर... फिर क्या हुआ? मैं सोच में पड़ गया....
फिर... गंगा ने अपने बाल खोले। वही सारे बचे-कुचे बाल जो बड़ी तेजी से झर रहे थे। फिर गंगा देव पर बैठ गई काली माई बनके।
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