उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘गंगा! क्या तुम मेरी कुछ गाओगी?? मुझे बहुत खुशी होगी‘‘ देव ने चाहा कि गंगा भी देव के लिए आज के दिन कुछ गाये।
पर ये क्या? गंगा ने बहुत याद करने की कोशिश की, पर कमजोर याददाश्त वाली गंगा को कोई भी गाना याद ही ना आया। मैंने देखा....
‘‘अगर गाना सुनने का इतना ही शौक था तो बम्बई जाकर किसी गायिका को पटाना चाहिऐ था, यहाँ रानीगंज में हलवाईयों के घर के चक्कर लगाने की क्या जरूतत थी?‘‘ मैंने व्यंग्य किया....
देव ने सुना।
शादी के बाद ठीक वैसा हुआ था जैसा गायत्री ने कहा था। देव का सारा ज्ञान खत्म हो गया था। मैंने जाना...
रानीगंज जैसे महादेहात में रहकर देव ने अखबार, मैंगजीन, पत्रिकायें आदि सबकुछ पढ़ना बन्द कर दिया था। मैंने जाना....
जब देव दिल्ली में था जो सुबह-सुबह आँख खुलते ही टाइम्स आफ इणिया, हिन्दुस्तान टाइम्स जैसे न्यूज पेपर पढ़ता था। पर अब देव सुबह-सुबह बोरी भरके हथौड़ी से कोयला तोड़ता था.... अपनी दुकान की बडी सी भट्टी जलाने के लिये। देव के गोरे-गोरे हाथ अब काले-काले हो जाते थे।
फिर देव एल्यूमिनियम के बड़े से भगौने में 50 किलो आलू उबलने रखता था कोयले से चलने वाली अपनी बड़ी सी भट्टी पर। वहीं भट्टी के दूसरे मुँह पर 30 किलो मटर जो भोला और ननके दुकान पर काम करने वाले नौकर रात में भिगो कर जाते थे, उबलने रखता था। वहीं भट्टी के तीसरे मुँह पर 50 किलो दूध गर्म होने रखता था... सारा दिन चाय बनाने के लिए। वहीं भट्टी के चौथे मुँह पर बड़ी सी लोहे की कढ़ाई में चाशनी बनने रखता था... सुबह-सुबह जलेबियाँ बनाने के लिए।
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