उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
सुबह-सुबह दिन का उजाला होते ही दुकान पर ग्राहक सब्जी-पूड़ी खाने आ जाते थे। देव को अब बड़ी फुर्ती से सभी को सब्जी-पूड़ी देनी पड़ती थी। फिर कस्टमर बार-बार सब्जी माँगते थे। कई बार जब नौकर छुट्टी पर होते थे तो देव को ही जूठी स्टील की प्यालियाँ और काँच के बर्तन टेबल पर से उठाने पड़ते थे। फिर नल पर दौड़कर उन्हें बड़ी तेजी से धोना भी पड़ता था। पढ़े-लिखे एम.ए., एमबीए देव को ये बिल्कुल भी शोभा न देता था
‘उफ्फ!! प्यार में पड़कर लोग क्या-क्या करते हैं!’ मैंने देव को देख व्यंग्य किया...
शाम तक दुकान पर खड़े-खड़े देव की कमर में दर्द हो जाता था। ये हलवाईयों वाला काम था ही ऐसा। भगवान न करे कि कभी कोई हलवाई बने। मैंने सोचा....
पर.........
जब शाम होने पर जब गंगा देव के लिए शाम वाली चाय बनाती थी और रात का खाना अपने हाथों से खिलाती थी तो देव की सारी मेहनत सार्थक हो जाती थी। आधी रात होने पर जब गंगा देव को अपनी स्पेशल मिठाई खिलाती थी तो देव का शरीर किसी बैटरी की तरह एक बार फिर से चार्ज हो जाता था और अगले बारह घंटों के लिए देव एक बार फिर शक्ति जुटा लेता था। मैंने पाया...
देव को अब दिल्ली की चौबीस घण्टे वाली बिजली नहीं चाहिए थी। देव को अब दिल्ली की एयरकंडीशन्ड बस और हवा में चलने वाली वातानुकूलित मेंट्रो भी नहीं चाहिए थी। देव को अब डॉल्बीडिजिटल वाले बेहतरीन क्वालिटी वाले दिल्ली के मल्टीप्लेक्सों में पिक्चर नहीं देखनी थी। अब सारी इच्छाओं पर जैसे विराम चिन्ह लग गया था।
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