उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘गंगा! दुकान पे कस्टमर्स की भीड़ लगी है! बाबू अकेले नहीं डील कर पा रहे हैं! हर कस्टमर को बस पलक झपकते ही सामान चाहिए! जरा सा भी एक सेकेण्ड का इंतजार नहीं कर सकते ....’ देव मजबूरी बताता था
‘ बहिन......!!’ गंगा के मुँह से गाली निकल जाती थी
‘दुकान का खोल लिहन हन! लागत है इन सब के कर्जा खायन है’ गंगा कस्टमर्स को कोसने लग जाती है।
जो गंगा को कस्ट पहुँचाये....वहीं कस्टमर है.... तभी इन लोगों का नाम कस्टमर पड़ा। मैंने सोचा....
‘गंगा! प्लीज ! गाली तो मत दिया करो! अब तो हम लोगों की शादी भी हो चुकी है! कल को बच्चे होंगे तो उन पर क्या असर पड़ेगा! वो भी गाली देना सीख जाऐंगें’ देव समझाता था।
‘ठीक है!’ गंगा समझ जाती थी और जिद नहीं करती थी। वो किसी प्रकार अपने गुस्से पर काबू रखती थी।
‘अच्छा!! चुम्मवा तो देत जाओ!!’ गंगा स्वयं को नियन्त्रित कर माँग करती थी।
‘ठीक है! चुम्मा ले लो!....’ देव गंगा को चुम्मा दे देता था जितना भी वो माँगती थी एक, दो, तीन, चार... पर जल्दी-जल्दी। मैंने देखा....
बरसात के महीनों में रानीगंज में पूरा-2 दिन बारिश होती थी। कस्टमर्स अपने-2 घरों में ही चाय बनाकर पी लेते थे। तब दुकान पर इक्का-दुक्का कस्टमर्स ही रहते थे। तब दोनों को देर तक वाला असली मजा पाने वाला प्यार करने का मौका दिन में भी मिल जाता था। मैंने ये गुप्त बात पता लगा ही ली। इस दौरान देव के ससुर गंगासागर हलवाई अकेले ही दुकान सम्भाल लेते थे। मैंने पाया...
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