उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘अ आ इ ई उ ऊँ ए ऐ ओ औ अंरू!..... उ! ओ! ओ! आह! आह!’ पढ़ाई में हमेशा से ही कमजोर गंगा देव को ये ‘अ से ज्ञ’ वाला पाठ बड़ी अच्छी तरह से सिखाती थी और देव को अन्त में गुड दे ही देती थी।
‘समधिन! इ कविता का होत है’ अनपढ़ रुकमणि देव की माँ से बड़े आश्चर्य से पूछती थी।
‘देखिए समधिन जी! कविता वो होती है जिसे सुनने पर व्यक्ति को अच्छा लगे, मजा आऐ, आनन्द की प्राप्ति हो.... वही कविता होती है!’ सावित्री रुकमणि को बताती थी।
‘.....जैसी लोरी होती है जो बच्चों को सुनाते है बस! वैसी ही कविता होती है आप ऐसे समझिए!!’ देव की माँ सावित्री गंगा की माँ को समझाने का भरपूर प्रयास करती थी।
‘समझैन! समझैन!’ रुकमणि अपना बड़ा सा सिर हिलाती थी।
‘और का कविता हमेशा पल्ला बन्द करके सुनावा जात है?’ रुकमणि बड़े भोलेपन से सावित्री से पूछती थी।
‘नहीं! नहीं! समधिन जी!! आप तो बड़ी भोली हैं! कविता सुनाने के लिए पल्ला; दरवाजाद्ध बन्द करने की कोई जरूरत नहीं होती। फिर सावित्री रुकमणि को धीरे से कान में सच्चाई बता देती थी कि आखिर देव और गंगा कमरे में पल्ला बन्द कर क्या कर रहे हैं।
‘हाय! ददई!!’ रुकमणि के मुँह से निकल पड़ता था।
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आखिर में गुड पाने के बाद; मतलब कि अपनी मिठाई खाने के बाद, देव बड़ी जल्दी-जल्दी कपड़े पहनता था।
‘काहे! इतना जल्दीयान हो? कुछ और देर हमरे साथे काहे नाहीं लेटते?’ गंगा देव से कुछ और स्वर्णिम पलों की माँग करती थी....
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