उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
देव ने भगवान शंकर की विधिवत रीति से पूजा की। और गंगासागर हलवाई को एक बार फिर से माँगा अगले जन्म में अपने ससुर रूप में। मैंने देखा...
अब देव को अगले जन्म में किसी अमीर व्यक्ति की कन्या से विवाह का मोह न था। अब तो देव को बस अब गंगासागर हलवाई ही चाहिए था अपने ससुर रूप में। मैंने जाना...
फिर तेरहवें दिन भोज का प्रबन्ध किया गया। देव ने पूरे रानीगंज को दावत दी जिससे ज्यादा से ज्यादा लोग भोज खायें और दिव्यात्मा को शांति मिले। मैंने देखा...
देव को इस घटना से बहुत दुख पहुँचा था। वो बहुत रोया था। इस कहानी के शुरू-शुरू में जब देव गंगा के बाबू से रोजाना मिलने जाता था, उन्हें तरह-तरह की मीठी-मीठी बातें करके पटाता था... तब देव और गंगा के बाबू के बीच एक रिश्ता सा कायम हुआ था जो कि अटूट था। मैंने ये भी जाना....
देव को इस दुखद घटना से सदमा लगा था। दुकान तो देव ने बस नाम मात्र को ही सम्भाली थी। छह महीनों तक देव ने गंगा और अपनी सास रुकमणि को छोड़ किसी से बात भी नहीं की थी। किसी का चेहरा भी नहीं देखा था।
गंगा का बाबू जो अपनी नीले रंग की सूती वाली चेक डिजाइन वाली पुरानी, गुदड़ी हुई लुन्गी छोड़ गया था उसे देव ने बड़ा सहेजकर बिल्कुल सीने से लगाकर रखा था। देव ने गंगा के बाबू को प्रथम बार इस नीले रंग की लुन्गी व सफेद रंग की बनियान में ही देखा था। देव बहुत ही भावुक प्रकृति का व्यक्ति था। वो जब भी गंगा के बाबू को याद करता था तो स्वयं वो इस नीली लुन्गी को पहन लेता था। इस मामूली से कपड़े की कीमत देव के लिए लाखों-करोड़ो रुपये से भी अधिक थी। मैंने जाना...
इस संकट से उबरने में देव को पूरा एक साल का समय लग गया था। मुझे पता चला...
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