उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
अयोध्या
प्रभु श्रीराम की नगरी।
दोपहर के करीब दो बजे का समय।
देव ने अन्य परिवार जनों की सहायता से चंदन की लकडि़यों की चिता तैयार की। नाई गंगा के बाबू के सिर के बालों को छीलने लगा।
‘अब सारी तैयारियाँ हो चुकी हैं!! अब आप चिता को अग्नि दीजिऐ!! अब विलम्ब करना उचित नहीं!!’ शमशानं घाट का पंडा बोला देव के हाथों में मशाल पकड़ाते हुए। गंगा के कोई भाई न होने के कारण देव ही गंगासागर हलवाई को मुखाग्नि दे, सभी परिवार जनों ने यह तय किया था।
‘बाबू! बाबू!..’ देव ने गंगा के बाबू और अपने ससुर को गले से लगा लिया। वो फफककर फूटकर रो पड़ा।
‘बाबू!! हम कल ही शिवालय जाएँगे और अगले जन्म में हम तुम्हे शिव से माँग लेगें एक बार फिर से अपने ससुर के रूप में!’ देव बोला ऊँचे स्वर में और बोलते-बोलते उसका गला रुँध गया। उपस्थित सभी लोग देव के कथनों के साक्षी बने।
फिर अगले ही पल.... देव ने अपना दिल कठोर किया और चिता को अग्नि दे दी।
धू! धू! कर चिता तीव्र गति से जलने लगी और कुछ ही घंटों में देव के ससुर गंगासागर हलवाई पंच तत्वों में विलीन हो गये। देव ने अस्थियों को सरयू की पवित्र नदी में विसर्जित कर दिया।
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प्रातःकाल सूर्योदय होने पर देव ने स्नान किया और गोशाला के लिए सबसे पहली पाँच बजे वाली बस पकड़ी।
देव एक बार फिर से गोशाला के शिवालय पहुँचा जो अभी तक की इन सारी घटनाओं का साक्षी था।
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