उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
देव जबरदस्त डर गया था। बहुत घबरा सा गया था वो। उसे धक्का सा लगा। नये-नये अच्छे कपड़े पहनकर, लेदर वाले काले जूते पोलिश कर, हाथ में गोल्डन टाइटन सोनाटा की घड़ी पहनकर, अच्छी परह बाल झारकर, शर्ट-पैन्ट पहनकर, क्रीम वगैरह लगाकर पूरा मेकप करके जो देव गंगा के घरवालों से मिलने गया था, बेचारे देव का सारा मेकप एक ही मिनट में धुल गया। वो तुरन्त ही उठकर दुकान से बाहर आने लगा। मैंने देखा....
‘‘अरे का चाही साहेब? बोलो तो? हमरे पास सबकुछ है!‘‘ एक छोटे लेकिन तेज तर्रार लड़के ने देव का रास्ता रोकते हुए कहा।
‘‘नहीं! नहीं! कुछ नहीं! मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं है! इसलिए हम बाद में आयेंगें‘‘ देव ने बहाना बनाया।
वो दुकान से बाहर आ गया। गंगा के बारे में सच्चाई जानकर देव का सिर बड़ा भारी-भारी सा हो गया था। मैंने पाया...
देव ने तुरन्त ही बस पकड़ी और गोशाला लौट आया। रात में देव जब सोने गया तो उसे नींद ही नहीं आ रही थी ये सच जानकर कि गंगा तो सचमुच वाली एक हलवाइन निकली।
गंगा के घर जाऊँगा! गंगा के घर जाऊँगा!....हमेशा रट् लगाते रहते थे, हमेशा जिद करते रहते थे। गंगा का घर देख लिया। गंगा के बाबू को भी अच्छी तरह देख लिया। अब आया मजा? बोलो-बोलो अब क्या हुआ? अब तुम्हारी बोलती क्यों बन्द हो गई?
‘‘अब क्या होगा? क्या माँ को सबकुछ सच-सच बता दूँ? या कुछ दिन इन्तजार करूँ और सही मौके की प्रतीक्षा करूँ?
माँ क्या सोचेगीं कि मैंने ऐसे घर में लड़की पसन्द की है जहाँ पे चाय, समोसा और मिठाईयाँ बेची जाती हैं?‘‘ तरह-तरह के सवाल देव के मन में उमड़ने-घुमड़ने लगे। देव इसी उधेड़बुन में लगा रहा।
पहले कभी!....
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