उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘अरे बाप रे!.....’ देव के मुँह से निकल पड़ा। जैसे उसके पैरों तले जमीन ही खिसक गई हो। मैंने देखा...
‘मर गया! मर गया आज तो!‘‘ देव को भीषण आश्चर्य हुआ। उसकी सारी उत्सुकता व रूचि समाप्त हो गयी थी। जैसे उसके चेहरे का रंग ही उड़ गया था।
‘जो लड़की इतना भाव खाती है! किसी से सीधे मुँह बात नहीं करती! अपने को महारानी विक्टोरिया, बिल्कुल तीस मार खाँ बताती है वो निकली एक हलवाइन वो भी बिल्कुल असली वाली..... बिल्कुल खानदानी.... बिल्कुल पुश्तैनी!‘‘ देव का सिर किसी बम की तरह धड़ाम से दगा। वो बिल्कुल चकरा गया था ये सब देखकर। जैसे उसे जोर का करेन्ट लगा।
‘‘ऊँची दुकान फीका पकवान देव! गंगा जिस तरह से नखड़े मारती है.... उसे देखकर तो यही लगता था कि मेरी गंगा किसी करोड़पति की बेटी होगी... पर आज पता चला ये तो बस एक हलवाइन है!‘‘ देव ने कहा। मैंने सुना....
फिर देव ने गंगा के बाबू को अपनी भट्टी पर खड़े होकर चाय बनाते देखा।
‘‘मर गया! मर गया!‘‘ देव ने प्रतिक्रिया दी।
‘‘अगर माँ ने गंगा के बाबू को इस प्रकार साधारण लोगों के लिए चाय बनाते देख लिया तो लुटिया पानी में पूरी तरह डूब जाएगी! माँ को तो हार्ट अटैक ही पड़ जाएगा!‘‘ देव को फिर से करेन्ट सा लगा।
....माँ इस घर में शादी के लिए कभी भी तैयार नहीं होगी!‘‘ देव ने तुरन्त सोचा।
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