उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘अच्छा!’ खुश होते हुए...
‘ये तो अच्छी खबर तुमने सुनाई गीता!’ सावित्री काफी खुश थी।
‘पर किससे? क्या उसे कोई लड़की पसन्द है? कौन लड़की है वो?’ अगले ही क्षण सावित्री ने पूछा।
‘भाभी! वो लड़की देव के साथ पढ़ती है! गंगा नाम है उसका!’ मामी ने बताया।
‘अच्छा! क्या वो हम लोगों से अमीर है? खेती कितनी है? ....और आम के बाग? वो कितने है? क्या उसका घर हम लोगों से भी बड़ा है?’ सावित्री बड़े उत्साह से एक के बाद एक प्रश्न पूछती चली गई छम-छम कर अपने सोने के मोटे-मोटे कंगंनों जो वो हमेशा अपने हाथों में पहनती थी को हिलाती हुई। उसने गले में एक बड़ा सोने का हार भी पहन रखा था। लाल रंग की छींटदार आरामदायक व कीमती रेशम की साड़ी भी पहन रखी थी। सावित्री ने अपने बालों को गोलाकार रूप में बाँधकर बड़ी सलीके से जूड़ा बनाया था वैसा जैसा पुराने जमाने में आशा पारेख, हेमामालिनी आदि वगैरह बनाती थी। मैंने गौर किया..
‘भाभी!....’ थोड़ा संकोच करते हुए।
‘उस लड़की के पास न तो खेती है! ...और न आम के बाग और उसका घर भी बस बित्ता भर का है!’ गीता मामी ने धीमें स्वर में कहा।
‘अच्छा!’ देव की माँ सावित्री ने अपनी भौंहें ऊपर उठाईं। सावित्री को ये बात कुछ जमी नहीं।
‘....उस लड़की घरवाले क्या करते हैं?’ फिर सावित्री ने तफतीश करते हुए पूछा।
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