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उपन्यास >> गंगा और देव

गंगा और देव

आशीष कुमार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :407
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9563
आईएसबीएन :9781613015872

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आज…. प्रेम किया है हमने….


‘‘देव! सोच लो अच्छी तरह! अगर गंगा से शादी का मन बना रहे हो तो मिठाईयाँ और कोल्डड्रिंक्स तो बहुत मिलेंगी... पर तुम्हें ये बड़ी सी तोंद भी हमेशा देखने होगी!‘‘ मैंने देव से विचार-विमर्श किया। फायदा तो है पर ये रोजाना तोंद देखने वाला टैक्स भी चुकाना होगा। मैंने देव से कहा....

देव ने सुना।

गंगा का बाबू तन पर सफेद बनियान और नीचे कमर पर लुंगी बाँधे था। वो हमेशा नंगे पैर ही रहता था। सिर के सारे बाल सफेद-2 पके हुए थे। गले में रूद्राक्ष की कई मालाऐं वो पहनता था। वो देखने से बिल्कुल भी हँसमुख नहीं लगता था, जैसे उसने ना हँसने की कसम खा रखी हो। बल्कि मूँछे तो इतनी बड़ी-बड़ी थीं कि कोई भी उसे देखकर डर जाए। मैंने नोटिस किया...

वह पूडि़याँ बेलने व समोसे बाँधने का काम बड़ी तन्मयता से करता था जैसे कोई कुम्हार बड़ी सावधानी से घड़ा बनाये जैसे कोई सुनार बड़ी सावधानी से सोने के आभूषण बनाऐ। मैंने पाया....

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‘‘दुकान के अन्दर हाथ धोना मना है‘‘ देव ने पढ़ा एक दीवार पर लाल रंग के पेन्ट से लिखा हुआ।

‘‘देव! जो भी खाना-पीना है खा लो, मगर हाथ बाहर ही धोना, वरना गंगा का बाबू सोचेगा कि तुम्हें मैनर्स नहीं है! उनके मन में तुम्हारी अच्छी छवि नहीं बनेगी! और तुम्हें तो गंगा के डेंजर-2 बाबू को पटाना भी तो है!‘‘ मैंने देव को सावधान किया।

हाँ! देव ने सिर हिलाया।

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