उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
|
7 पाठकों को प्रिय 184 पाठक हैं |
आज…. प्रेम किया है हमने….
अगला दिन।
क्या वो हाँ करेगी? या ना करेगी? क्या मना करेगी या मान जाएगी? या अपने विशुद्ध स्वभाव के अनुरूप गुस्सा जाएगी। देव बहुत बेचैन था। बहुत व्याकुल। तरह-तरह के प्रश्न देव के मन में उठ रहे थे। मैंने देखा...
अंततः गंगा आई।
‘‘क्या तुम मेरे बगल में बैठना चाहोगे?‘‘ गंगा ने पूछा।
‘‘हाँ! हाँ!‘‘ देव ने सिर हिलाया।
‘‘....पर ध्यान रहे देव कि ये बात क्लास में किसी को पता न चले!‘‘ गंगा ने इच्छा जाहिर की।
‘‘शिव की कसम गंगा! क्लास में किसी को कभी पता नहीं चलेगा‘‘ देव ने प्रामिस किया।
गोशाला तो थोड़ा बहुत आधुनिक था भी पर रानीगंज तो 100 परसेंट रूढि़वादी और परम्परावादी था। मैंने जाना.....
रानीगंज में प्यार-व्यार को बिल्कुल भी अच्छा नहीं माना जाता था। यहाँ के सभी निवासी प्यार-व्यार, प्रेम-व्रेम को एक निषिद्ध कार्य, एक टैबू मानते थे। अभी तक रानीगंज में जितनी भी शादियाँ हुई थी वो एक ही जात, एक ही बिरादरी में हुई थीं। हमेशा अरेन्ज मैरिज ही होती थी। यहाँ तक कि लड़के-लड़की शादी से पहले एक दूसरे का मुँह भी नहीं देखते थे। शादी से पहले मिलने व बोलने की मनाही थी। मैंने ये भी जाना....
0
|