उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘गीता! दोनो नौकरानियों से बोल दे कि देव का कमरा अच्छी तरह साफ कर दें। सोफे के सारे कवर, बेड सीट बदल दे, काँच की सारी खिड़कियों को गीला कपड़ा कर साफ कर दें... और पर्दे लाल रंग के लगा देना! देव को लाल रंग के पर्दे पसन्द है!’
‘हाँ! हाँ! भाभी! ये सारे काम कल रात को ही मैंने करवा दिये हैं... देव के कमरों को अच्छी तरह सजा दिया है, गुलदस्तो में गुलाबी और पीले रंग के गुलाब के फूल रखवा दिये हैं!...तुम अब बिल्कुल भी चिन्ता मत करो!’
.....तभी मनोहर मामा देव को ले आये। कार हवेली के मुख्य द्वार पर लगाई।
‘मालकिन! मालकिन! ....देव बाबू आ गये! देव बाबू आ गये!’ कश्यप खानदान का पुराना व वफादार नौकर दयाराम दौड़ते-दौड़ते सावित्री के पास आया। जैसे आज वो भी बहुत खुश था। फूले नहीं समा रहा था। मैंने पाया ...
देव ने पहला कदम जमीन पर रखा....
माँ कहा है.....?’ देव ने पूछा हमेशा की तरह अपने ओठों पर मुस्कान ओढ़ते हुए। यही शब्द इतने सालों बाद देव के मुँह से पहली बार निकले।
सावित्री जो देव की आरती उतारने के लिए पूजा की थाली सजा रही थी... वो तो जैसे पगला ही गयी। जब दयाराम ने बताया कि देव हवेली पर पहुँच चुका है।
‘माँ! माँ.... कहाँ हो?’ देव ने सावित्री को आवाज दी और मामा, मामी व अन्य लोगों के साथ घर में प्रवेश किया।
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