उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
दूसरी ओर वहीं हवेली पर....
‘अरे गीता! तूने सब कुछ बना लिया ना! कुछ भूली तो नहीं!... छोले चावल वो जो देव को पसन्द है?’
देव की माँ सावित्री जहाँ एक ओर बड़ी खुश थी कि उसका इकलौता बेटा छह सालों बाद आद दिल्ली से अपनी पढ़ाई खत्म कर लौट रहा है..... सावित्री बिल्कुल पागल हुई जा रही थी। इतने सालो से देव से बस फोन पर ही बात होती थी। आज वो दिन था जब सावित्री देव को अपने कलेजे से लगाकर दिल की तसल्ली करेगी। उसे आज मन की शाति मिलेगी। आज चैन मिलेगा उसे। मैंने जाना.....
‘हाँ भाभी!’ मामी ने जवाब दिया।
‘राजमा, कढ़ी-चावल, बेसन की दही वाली पकौडि़याँ और रायता भी बन गया ना?’
‘हाँ भाभी! मामी ने जवाब दिया
‘....आमलेट और पनीर की भुजिया... वो भी तैयार कर ली ना?’
‘हाँ! हाँ!....मैंने वो भी तैयार कर ली है भाभी! मैं कुछ भी नहीं भूली!’ मामी ने फटाक से बड़ी तेजी जवाब दिया।
....और वो जो नाँन-वेज खाना जो मैंने कल तुझे रात में बनाने को बताया था?’ सावित्री से कन्रफर्म करते हुए पूछा।
‘हाँ! हाँ!....मैंने सब कुछ तैयार कर लिया है!’ देव की गीता मामी ने एक बार फिर से सिर हिलाया।
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