उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘अच्छा तुम कह रहे हो तो सोचूँगी‘‘ गंगा ने विश्वास दिलाया कि वो लड्डू, बर्फी, जलेबी बनाने वाले बिसी शेडयूल से समय निकालेगी।
‘‘प्लीज!‘‘ देव ने अपने दोनों हाथ जोड़े।
‘‘पक्का सोचेंगें!‘‘ गंगा से विश्वास दिलाया अपना बड़ा सा सिर हिलाकर।
‘‘प्लीज! थोड़ा जल्दी!‘‘ देव ने गुजारिश की।
‘‘जल्दी क्यों?‘‘ गंगा ने प्रश्न किया।
‘‘....अगर देर हुई तो हम मर जाएगें!‘‘ देव ने उत्तर दिया लिखकर।
गंगा ने पढ़ा।
पर ये क्या? देव अचानक से बहुत गंभीर हो गया। उसकी दोनों बड़ी-बड़ी पलकें नम हो गई। आँखों में अचानक से कहीं से पानी के बादल आँसू के रूप में आ गये....
‘‘क्या हुआ? इसमें रोने की क्या बात है? क्या मैंने कुछ गलत बोल दिया?‘‘ गंगा ने बड़े आश्चर्य से पूछा। वो सोची कि शायद उसने कोई गलत बात बोल दी इसी कारण देव दुखी हो गया है।
‘‘गंगा! हमें तुम्हारे अन्दर भगवान दिखाई देता है!‘‘ देव ने बताया लिखकर।
गंगा को बड़ा आश्चर्य हुआ।
‘‘ कब से?‘‘ गंगा ने जानना चाहा।
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