यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
ऐसी भी खोपड़ियों का निराकार रूप में साक्षात्कार हुआ है, जो दुनिया घूमते-घूमते गुमनाम ही चली गईं। निजनीनवोग्राद में गये उस भारतीय घुमक्कड़ के बारे में किसी को पता नहीं कि वह कौन था, किस शताब्दी में गया था, न यही मालूम कि वह कहाँ पैदा हुआ था, और कैसे-कैसे चक्कर काटता रहा। यह सारी बातें उसके साथ चली गईं। वर्तमान शताब्दी के आरंभ में एक रूसी उपन्यासकार को निजनीनवोग्राद की भौगोलिक और सामाजिक पृष्ठ भूमि को लिए एक उपन्यास लिखने की इच्छा हुई। उसी ने वहाँ एक गुप्त संप्रदाय का पता लगाया, जो बाहर से अपने को ईसाई कहता था, लेकिन लोग उस पर विश्वास नहीं करते थे। उपन्यासकार ने उनके भीतर घुसकर पूजा के समय गाये जाने वाले कुछ गीत जमा किए। वह गीत यद्यपि कई पीढ़ियों से भाषा से अपरिचित लोगों द्वारा गाये जाते थे, इसलिए भाषा बहुत विकृत हो चुकी थी, तो भी इसमें कोई संदेह की गुंजाइश नहीं, कि वह हिंदी भाषा के गीत थे उनमें गौरी तथा महादेव की महिमा गाई गई थी। उपन्यासकार ने लिखा है कि उसके समय (बीसवीं शताब्दी के आरंभ में) इस पंथ की संख्या कई हजार थी, उसका मुखिया जार की सेना का एक कर्नल था। मालूम नहीं क्रांति की आँधी में वह पंथ कुछ बचा या नहीं, किंतु ख्याल कीजिए - कहाँ भारत और कहाँ मध्य वोल्गा में आधुनिक गोरकी और उस समय का निजनीनवोग्राद। निजनीनवोग्राद (निचला नया नगर) में दुनिया का सबसे बड़ा मेला लगता था, जिसमें यूरोप ही नहीं, चीन, भारत तक के व्यापारी पहुँचते थे। जान पड़ता है, मेले के समय वह फक्कड़ भारतीय वहाँ पहुँचा गया। फक्कड़ बाबा के लिए क्या बात थी? यदि वह कहीं दो-चार साल के लिए बस जाता तो वहाँ उसकी समाधि होती। फिर तो उपन्यासकार अवश्य उसका वर्णन करता। खैर, भारतीय घुमक्कड़ ने रूसी परिवारों में से कुछ को अपना ज्ञान-ध्यान दिया। भाषा का इतना परिचय हो कि वह वेदांत सिखलाने की कोशिश करे, यह संभव नहीं मालूम होता। वेदांत सिखलाने वाले को हर-गौरी के गीतों पर अधिक जोर देने की आवश्ययकता नहीं होती। फक्कड़ बाबा के पास कोई चीज थी, जिसने वोल्गा तट के ईसाई रूसियों को अपनी ओर आकृष्ट किया, नहीं तो वह इकट्ठा होकर पूजा करते, हर-गौरी का गीत क्यों गाते? संभव है फक्कड़ बाबा को योग और त्राटक के लटके मालूम हों। ये अमोघ अस्त्र हैं, जिन्हें लेकर हमारे आज के कितने ही सिद्ध पुरुष यूरोपियन शिक्षितों को दंग करते हैं। फिर सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी में यदि फक्कड़ बाबा ने लोगों को मुग्ध किया हो, अथवा आत्मिक शांति दी हो, तो क्या आश्चर्य? वोल्गा तक फक्कड़ बाबा भी निरुद्देश्य गया, लेकिन निरुद्देश्य रहते भी वह कितना काम कर गया? पश्चिमी यूरोप के लोग उन्नीसवीं-बीसवीं सदी में जिस तरह भारतीयों को नीची निगाह से देखते थे, रूसियों का भाव वैसा नहीं था। क्या जाने उसका कितना श्रेय फक्कड़ बाबा जैसे घुमक्कड़ों को है? इसलिए निरुद्देश्य घुमक्कड़ से हमें हताश होने की आवश्यकता नहीं है।
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