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यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र

घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण

तीस बरस से भारत से गये हुए एक मित्र जब पहली बार मुझे रूस में मिले, तो गद्गद् होकर कहने लगे - “आपके शरीर से मातृ-भूमि की सुगंध आ रही है।” हर एक घुमक्कड़ अपने देश की गंध ले जाता है। यदि वह उच्च श्रेणी का घुमक्कड़ नहीं हो तो वह दुर्गंध होती है, किंतु हम निरुद्देश्य से दुर्गंध पहुँचाने की आशा नहीं रखते। वह अपने देश के लिए अभिमान करेगा। भारत जैसी मातृभूमि पाकर कौन अभिमान नहीं करेगा? यहाँ हजारों चीजें हैं, जिन पर अभिमान होना ही चाहिए। गर्व में आकर दूसरे देश को हीन समझने की प्रवृत्ति हमारे घुमक्कड़ की कमी नहीं होगी, यह हमारी आशा है और यही हमारी परंपरा भी है। हमारे घुमक्कड़ असंस्कृ्त देश में संस्कृति का संदेश लेकर गये, किंतु इसलिए नहीं कि जाकर उस देश को प्रताड़ित करें। वह उसे भी अपने जैसा संस्कृत बनाने के लिए गये। कोई देश अपने को हीन न समझे, इसी का ध्यान रखते उन्होंने अपने ज्ञान-विज्ञान को उसकी भाषा की पोशाक पहनाई, अपनी कला को उसके वातावरण का रूप दिया। मातृभूमि का अभिमान पाप नहीं है। हमारा घुमक्कड़ निरुद्देश्यी होने पर भी अपने देश का प्रतिनिधि समझेगा, और इस बात की कोशिश करेगा कि उससे कोई ऐसी बात न हो, जिससे उसकी जन्मभूमि और घुमक्कड़-पंथ लांछित हों। वह समझता है, इस निरुद्देश्यों घुमक्कड़ी में मातृभूमि की दी हुई हड्डियाँ न जाने किस पराये देश में बिखर जायँ, देश की इस थाती को पराये देश में डालना पड़े, इस ऋण का ख्याल करके भी घुमक्कड़ सदा अपनी मातृभूमि के प्रति कृतज्ञ बनने की कोशिश करेगा।

बिना किसी उद्देश्य के पृथ्वी-पर्यटन करना यह भी छोटा उद्देश्य नहीं है। यदि किसी ने बीस-बाईस साल की आयु में भारत छोड़ दिया और छओं महाद्वीपों के एक-एक देश में घूमने का ही संकल्प कर लिया, तो यह भी अप्रत्यक्ष रूप से कम लाभ की चीज नहीं है। ऐसे भी भारतीय घुमक्कड़ पहले हुए हैं, और एक तो अब भी जीवित है। उसकी कितनी ही बातें मैंने यूरोप के लोगों के मुँह से सुनीं। कई बातें तो विश्वसनीय नहीं हैं। सोलह-अठारह बरस की उमर में विश्वविद्यालय से दर्शन का डाक्टर होना - सो भी प्रथम विश्वयुद्ध के पहले, यह विश्वास की बात नहीं है। खैर, उसके दोषों से कोई मतलब नहीं। उसने घुमक्कड़ी बहुत की है। शायद पैंतीस-छत्तीस बरस उसे घूमते ही हो गये, और अमेरिका, यूरोप, तथा अटलांटिक और प्रशांत महासागर के द्वीपों को उसने कितनी बार छान डाला, इसे कहना मुश्किल है। अंग्रेजी, फ्रांसीसी, स्पेनिश आदि भाषायें उसने घूमते-घूमते सीखीं।

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