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यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र

घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण

शिक्षिता माताएँ भी अधीर देखी जाती हैं। एक माँ का लड़का मैट्रिक परीक्षा देकर घर से भाग गया। दो-तीन वर्ष से उसका पता नहीं है। माता यह कहकर मेरी सहानुभूति प्राप्त करना चाहती थी- “हम कितनी अच्छी तरह से उन्हें घर में रखती हैं, फिर भी यह लड़के हमें दु:ख दे कर भाग जाते हैं!” मैंने घुमक्कड़ पुत्र की माता होने के लिए उन्हें बधाई दी- ”पुत्रवती युवती जग सोई, जाकर पुत्र घुमक्कड़ होई। आपकी छत्रछाया से दूर होने पर अब वह एक स्वावलंबी पुरुष की तरह कहीं विचर रहा होगा। आपके तीन और बच्चे हैं। पति-पत्नी ने दो की जगह तीन व्यक्ति हमारे देश को दिये हैं। यह एक ही पीढ़ी में डेढ़ गुनी जनसंख्या की वृद्धि! सूद-दर-सूद के साथ पीढ़ियों तक यदि यही बात रही, तो क्या भारत में पैर रखने का भी ठौर रह जायगा?” मेरे तर्क को सुनकर महिला ने बाहर से तो क्षोभ नहीं प्रकट किया, यह उनकी भलमनसाहत समझिए, लेकिन उनको मेरी बातें अच्छी नहीं लगीं। अशिक्षित माता “घुमक्कड़-शास्त्र” को क्या जानेगी? लेकिन, मुझे विश्वास है, शिक्षित-माताएँ इसे पढ़कर मुझे कोसेंगी, शाप देंगी, नरक और कहाँ-कहाँ भेजेंगी। मैं उनके सभी शापों और दुर्वचनों को सिर-माथे रखने के लिए तैयार हूँ। मैं चाहता हूँ, इस शास्त्र को पढ़कर वर्तमान शताब्दी के अंत तक कम-से-कम एक करोड़ माताएँ अपने लालों से वंचित हो जाएँ। इसके लिए जो भी पाप हो, प्रभु मसीह की भाँति उसको सिर पर उठाकर मैं सूली पर चढ़ने के लिए तैयार हूँ।

माता यदि शिक्षिता ही नहीं समझदार भी है, तो उसे समझना चाहिए, कि पुत्र को घुटने चलने से पैरों पर चलने तक सिखला देने के बाद वह अपने कर्त्तव्य का पालन कर लेती है। चिड़ियाँ अपने बच्चों को अंडे से बाहर कर पंख जमने के समय तक की जिम्मेवार होती हैं, उसके बाद पक्षिशावक अपने से ही विस्तृत दुनिया की उड़ान करने लगता है। कुछ माताएँ समझती हैं कि 15-16 वर्ष का बच्चा कैसे अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है। उनको यह मालूम नहीं है कि मनुष्य के बच्चे के पास पक्षियों की अपेक्षा और भी अधिक साधन हैं। जाड़ों में साइबेरिया से हमारे यहाँ आई लालसर और कितनी ही दूसरी चिड़ियाँ अप्रैल में हिमालय की ओर लौटती दिखायी देती हैं। गर्मियों में तिब्बत के सरोवर वाले पहाड़ों पर वे अंडे देती हैं। इन अंडों को खाने का इस शरीर को भी सौभाग्य हुआ है। अंडे बच्चों में परिणत होते हैं। सयाने होने पर कितनी ही बार देखा जाता है, कि नए बच्चे अलग ही जमात बना कर उड़ते हैं। ये बच्चे बिना देखे मार्ग से नैसर्गिक बुद्धि के बल पर गर्मियों में उत्तराखंड से उड़ते बैकाल सरोवर तक पहुँचते हैं, और जब वहाँ तापमान गिरने लगता है, हिमपात होना चाहता है, तो वह फिर अनदेखे रास्तेँ अनदेखे देश भारत की ओर उड़ते, रास्ते में ठहरते, यहाँ पहुँच जाते हैं। स्वावलंबन ने ही उन्हें यह सारी शक्ति दी है। मनुष्य में परावलंबी बनने की जो प्रवृत्ति शिक्षिता माता जागृत करना चाहती हैं, मैं समझता हूँ उसकी शिक्षा बेकार है-

“धिक तां च तं च”

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