यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
अगर वह अच्छी माता है, दूरदर्शी माता है, तो उसको मूढ़माता न बन समझदार माता बनना चाहिए। जिस लड़के में घुमक्कड़ी का अंकुर दीख पड़े, उसे प्रोत्साहित करना चाहिए। घूमने की रुचि देख कर उसे क्षमता के अनुसार दो-चार सौ रुपये देकर कहना चाहिए- “बेटा, जा, दो-चार महीने सारे भारत की सैर कर आ”। मैं समझता हूँ, ऐसा करके वह फायदे में ही रहेगी। यदि उसका लड़का घुमक्कड़ी के योग्य नहीं है, तो घूम-फिरकर अपने खूँटे पर आ खड़ा हो जायगा, उसकी झूठी प्यास बुझ जायगी। यदि घुमक्कड़ी का बीज सचमुच ही उसमें है, तो वह ऐसी माता का दर्शन करने से कभी नहीं कतरायगा, क्योंकि वह जानता है कि, उसकी माता कभी बंधन नहीं बनेगी। माता को यह भी सोचना चाहिए, कि तरुणाई में एक महान उद्देश्य के लिए जिस संतान के प्रयाण करने में वह बाधक हो रही है, वही पुत्र बड़ा होने पर पत्नी् के घर आने तथा कुछ संतानों के हो जाने पर, क्या विश्वास कि, माता के प्रति वही भाव रखेगा। सास-बहू का झगड़ा और पुत्र का बहू के पक्ष में होना कितना देखा जाता है? माता के लिए यही अच्छा है कि पुत्र के साधु-संकल्प में बाधक न हो, पुत्र के लिए यही अच्छा है, कि दुराग्रही मूढ़ माता का बिलकुल ख्याल न करके अपने को महान पथ पर डाल दे।
पिता - माता के बाद पिता घुमक्कड़ी संकल्प के तोड़ने का सबसे अधिक प्रयत्न करते हैं। यदि लड़का छोटा अर्थात् 15-16 वर्ष से कम का है, तो वह उसे छोटे-मोटे साहस करने पर डंडे के सहारे ठीक करना चाहते हैं। घुमक्कड़ी का अंकुर क्या डंडे से पीटकर नष्ट किया जा सकता है? कभी कोई पिता ताड़ना के बल पर सफल नहीं हुआ, तो भी नए पिता उसी हथियार को इस्तेमाल करते हैं। घुमक्कड़ तरुण के लिए अच्छा भी है, क्योंकि वह ऐसे पिता के प्रति अपनी सद्भावना को खो बैठता है और आँख बचाकर निकल भागने में सफल होते ही उसे भूल जाता है। लेकिन सभी पिता ऐसे मूढ़ नहीं होते, मूढ़ भी दंड का प्रयोग पंद्रह ही वर्ष तक करते हैं। उन्होंने शायद नीति-शास्त्र में पढ़ लिया होता है-
लालयेत् पंच वर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत्।प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रे मित्रत्वरमाचरेत्॥
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