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यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र

घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण


पुत्र के भागने पर खोजने की दौड़-धूप पिता के ऊपर होती है, माँ बेचारी तो घर के भीतर ही रोती-धोती रह जाती है। कुछ चिंताएँ माता-पिता की समान होती हैं। चाहे और पुत्र मौजूद हों, तब भी एक पुत्र के भागने पर पिता समझता है, वंश निर्वश हो जायगा, हमारा नाम नहीं चलेगा। वंश-निर्वश की बात देखनी है तो कोई भी व्यक्ति अपने गोत्र और जाति की संख्या गिन के देख ले, संख्याए लाखों पर पहुँचेगी। सौ-पचास लोगों ने यदि अपना वंश न चला पाया, तो वंश-निर्वंश की बात कहाँ आती है? पुत्र के भाग-जाने, संतति वृद्धि न करने पर नाम बुझ जायगा, यह भली कही। मैंने तो अच्छे पढ़े-लिखे लोगों से पूछ कर देखा है, कोई परदादा के पिता का नाम नहीं बतला सकता। जब लोग अपनी चौथी पीढ़ी का नाम भूल जाते हैं, तो नाम चलाने की बात मूढ़-धारणा नहीं तो क्या है? पुराने जमाने में “अपुत्रस्य गर्ति‍नास्ति” भले ही ठीक रही हो, क्योंकि दो हजार वर्ष पहले हमारे देश में जंगल अधिक थे, आबादी कम थी, जंगल में हिंस्र पशु भरे हुए थे। उस समय मनुष्यों की कोशिश यही होती थी, कि हम बहुत हो जायँ, संख्या-बल से शत्रुओं को दबा सकें, अधिक भोग-सामग्री उपजा सकें। लेकिन आज संख्या-बल देश में इतना है कि और अधिक बढ़ने पर हमारे लिए वह काल होने जा रहा है। सोचिए, 1949 में हमारे यहाँ के लोगों को रूखा-सूखा खाना देने के लिए भी 40 लाख टन अनाज बाहर से मँगाने की आवश्यकता है। अभी तक तो लड़ाई के वक्त जमा हो गये पौंड और कुछ इधर-उधर करके पैसा दे अन्न खरीदते-मँगाते रहे, लेकिन अब यदि अनाज की उपज देश में बढ़ाते, तो पैसे के अभाव में बाहर से अन्न‍ नहीं आयगा, फिर हम लाखों की संख्या में कुत्तों की मौत मरेंगे। एक तरफ यह भारी जनसंख्या परेशानी का कारण है, ऊपर से हर साल पचास लाख मुँह और बढ़ते-सूद-दर-सूद के साथ बढ़ते-जा रहे हैं। इस समय तो कहना चाहिए - “सपुत्रस्य गर्ति‍नास्ति”। आज जितने नर-नारी नया मुँह लाने से हाथ खींचते हैं, वह सभी परम पुण्य के भागी हैं। पुण्य पर विश्वास न हो तो श्रद्धा-सम्मान के भागी हैं। वह देश का भार उतारते हैं। हमें आशा है, समझदार पिता पुत्रोत्पत्ति करके पितृ से उऋण होने की कोशिश नहीं करेंगे। उन्हें पिंडदान के बिना नरक में जाने की चिंता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि स्वर्ग-नरक जिस सुमेरु-पर्वत के शिखर और पाताल में थे, आज के भूगोल ने उस भूगोल को ही झूठा साबित कर दिया है। उनको यदि यश और नाम का ख्याल है, तो हो सकता है उनका घुमक्कड़ पुत्र उसे देने में समर्थ हो। पिता का प्रेम और उसके अति श्रद्धा सदा उनके पास रहने से ही नहीं होती, बल्कि सदा पिता के साथ रहने पर तो पिता-पुत्र का मधुर संबंध फीका होते-होते कितनी ही बार कटु रूप धारण कर लेता है। पिता के लिए यही अच्छा है कि पुत्र के संकल्प में बाधक न हो, और न बुढ़ापे की बड़ी-बड़ी आशाओं के बिफल होने के ख्याल से हाय-तोबा करें। आखिर तरुण पुत्र भी मर जाते हैं, तब पिता को कैसे सहारा मिलता है? महान लक्ष्य को लेकर चलने वाले पुत्र को दुराग्रही पिता की कोई पर्वाह नहीं करनी चाहिए और सब छोड़कर घर से भाग जाना चाहिए।

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