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यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र

घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण

घुमक्कड़ी एक रस है, जो काव्य‍ के रस से किसी तरह भी कम नहीं है। कठिन मार्गों को तय करने के बाद नए स्थानों में पहुँचने पर हृदय में जो भावोद्रेक पैदा होता है, वह एक अनुपम चीज है। उसे कविता के रस से हम तुलना कर सकते हैं, और यदि कोई ब्रह्म पर विश्वास रखता हो, तो वह उसे ब्रह्म-रस समझेगा - 'रसो वै स: रसं हि लब्ध्वा आनंदी भवति।” इतना जरूर कहना होगा कि उस रस का भागी वह व्यक्ति नहीं हो सकता, जो सोने-चाँदी में लिपटा हुआ यात्रा करना चाहता है। सोने-चाँदी के बल पर बढ़िया-से-बढ़िया होटलों में ठहरने, बढ़िया-से-बढ़िया विमानों पर सैर करने वालों को घुमक्कड़ कहना इस महान शब्द के प्रति भारी अन्याय करना है। इसलिए यह समझने में कठिनाई नहीं हो सकती कि सोने के कटोरे को मुँह में लिए पैदा होना घुमक्कड़ के लिए तारीफ की बात नहीं है। यह ऐसी बाधा है, जिसको हटाने में काफी परिश्रम की आवश्यकता होती है।

प्रश्न हो सकता है - क्या सभी वस्तुओं से विरत हो, सभी चीजों को छोड़कर, कुछ भी हाथ में न रख निकल पड़ना ही एकमात्र घुमक्कड़ का रास्ता है? जहाँ घुमक्कड़ के लिए संपत्ति बाधक और हानिकारक है, वहाँ साथ ही घुमक्कड़ के लिए आत्मसम्मान की भी भारी आवश्यकता है। जिसमें आत्म सम्मान का भाव नहीं, वह कभी अच्छे दर्जे का घुमक्कड़ नहीं हो सकता। अच्छी श्रेणी के घुमक्कड़ का कर्त्तव्य है कि अपनी जाति, अपने पंथ, अपने बंधु-बांधवों पर - जिनमें केवल घुमक्कड़ ही शामिल हैं - कोई लांछन नहीं आने दे। यदि घुमक्कड़ उच्चादर्श और सम्माननीय व्यवहार को कायम रखेगा, तो उससे वर्तमान और भविष्य के, एक देश और सारे देशों के घुमक्कड़ों को लाभ पहुँचेगा। इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए कि हजारों घुमक्कड़ों में कुछ बुरे निकलेंगे और उनकी वजह से घुमक्कड़-पंथ कलंकित होगा। हरेक आदमी के सामने घुमक्कड़ के असली रूप को रखा न भी जा सके तो भी गुणग्राही, संस्कृत, बहुश्रुत, दूरदूर्शी नर-नारियों के हृदय में घुमक्कड़ों के प्रति विशेष आदरभाव पैदा करना हरेक घुमक्कड़ का कर्त्तव्य है। उसे अपना ही रास्ता ठीक नहीं रखना है, बल्कि यदि रास्ते में काँटे पड़े हों, तो उन्हें हटा देना है, जिससे भविष्य में आने वालों के पैर में वह न चुभें। इन सबका ध्या‍न वही रख सकता है, जिसमें आत्म-सम्मान की भावना कूट-कूटकर भरी हुई है। घुमक्कड़ चापलूसी से घृणा करता है, लेकिन इसका अर्थ अक्खड़, उजड्ड होना नहीं है, और न सांस्कृ़तिक सद्व्यवहार से हाथ धो लेना। वस्तुत: घुमक्कड़ को अपने आचरण और स्वभाव को ऐसा बनाना है, जिससे वह दुनिया में किसी को अपने से ऊपर नहीं समझे, लेकिन साथ ही किसी को नीचा भी न समझे। समदर्शिता घुमक्कड़ का एकमात्र दृष्टिकोण है, आत्मीयता उसके हरेक बर्ताव का सार है।

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