यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
आत्म सम्मान रखने वाले आदमी के लिए यह आवश्यक है, कि वह भिक्षुक, भीख माँगने वाला, न बने। भीख न माँगने का यह अर्थ नहीं है, कि भिक्षाजीवी बौद्ध भिक्षु इस घुमक्कड़ के अधिकारी नहीं हो सकते। वस्तुत: उस भिक्षाचर्या का घुमक्कड़ों से विरोध नहीं है। वही भिक्षाचर्या बुरी है जिसमें आदमी को दीन-हीन बनना पड़ता है, आत्मसम्मान को खोना पड़ता है। लेकिन ऐसी भिक्षाचर्या बौद्ध भिक्षुओं के लिए - बौद्ध देशों तक ही सीमित रह सकती है। बाहर के देशों में वह संभव नहीं है। महान घुमक्कड़ बुद्ध ने भिक्षाचर्या का आत्म सम्मान के साथ जिस तरह सामंजस्य किया है, वह आश्चर्यकर है। बौद्ध देशों में घुमक्कड़ी करने वाले भिक्षु ही उस यात्रा का आनंद जानते हैं। इसमें संदेह नहीं, बौद्ध देशों के सभी भिक्षु घुमक्कड़ नाम के अधिकारी नहीं होते, प्रथम श्रेणी के घुमक्कड़ों की संख्या, तो वहाँ और भी कम है। फिर भी उनके प्रथम मार्गदर्शक ने जिस तरह का पथ तैयार किया, पथ के चिह्न निर्मित किए, उस पर घास-झाड़ी अधिक उग आने पर भी वह वहाँ मौजूद है, और पंथ को आसानी से फिर प्रशस्त किया जा सकता है।
यदि बौद्ध-भिक्षुओं की बात को छोड़ दें, तो आत्म सम्मान को कायम रखने के लिए घुमक्कड़ को स्वावलंबी होने में सहायक कुछ बातों की अत्यंत आवश्यतकता है। हम पहले स्वावलंबन के बारे में थोड़ा कह चुके हैं और आगे और भी कहेंगे, यहाँ भी इसके बारे में कुछ मोटी मोटी बातें बतलाएँगे।
स्वावलंबन का यह मतलब नहीं, कि आदमी अपने अर्जित पैसे से विलासपूर्ण जीवन बिताए। ऐसे जीवन का घुमक्कड़ी से 3 और 6 का संबंध है। स्वावलंबी होने का यह भी अर्थ नहीं है, कि आदमी धन कमाकर कुल-परिवार पोसने लग जाय। कुल परिवार और घुमक्कड़ी-धर्म से क्या संबंध? कुल-परिवार स्थावर व्यक्ति की चीज है, घुमक्कड़ जंगम है, सदा चलने वाला। हो सकता है घुमक्कड़ को अपने जीवन में कभी वर्ष-दो-वर्ष एक जगह भी रहना पड़ जाय, लेकिन यह स्वेच्छापूर्वक रहने की सबसे बड़ी अवधि है। इससे अधिक रहने वाला, संभव नहीं है, कि अपने व्रत का पालन कर सके। इस प्रकार स्वावलंबी होने का यही मतलब है, कि आदमी को दीन होकर हाथ पसारना न पड़े।
घुमक्कड़ नाम से हमारे सामने ऐसे व्यक्ति का रूप नहीं आता, जिसमें न संस्कृति है न शिक्षा। संस्कृति और शिक्षा तथा आत्मससम्मान घुमक्कड़ के सबसे आवश्यसक गुण हैं। घुमक्कड़ चूँकि किसी मानव को न अपने से ऊँचा, न नीचा समझता है, इसलिए किसी के भेस को धारण करके उसकी पांती में जा एक होकर बैठ सकता है। फटे चीथड़े, मलिन, कृष गोत्र यायावरों के साथ किसी नगर या अरण्य में अभिन्न होकर जा मिलना भी कला है। हो सकता है वह यायावर प्रथम या दूसरी श्रेणी के भी न हों, लेकिन उनमें कभी-कभी ऐसे भी गुदड़ी के लाल मिल जाते हैं, जिन्होंने अपने पैरों से पृथ्वी के बड़े भाग को नाप दिया है। उनके मुँह से अकृत्रिम भाषा में देश-देशांतर की देखी बातें और दृश्यों को सुनने में बहुत आनंद आता है, हृदय में उत्साह बढ़ता है। मैंने तीसरी श्रेणी के घुमक्कड़ों में भी बंधुता और आत्मीयता को इतनी मात्रा में देखा है, जितनी संस्कृत और शिक्षित-नागरिक में नहीं पाई जाती।
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