यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
शरीर को कर्मण्य रखने के लिए मनुष्य ने आदिम-काल में नृत्य का आविष्काकर किया, अथवा नृत्य के लाभ को समझा। नृत्य शरीर को दृढ़ और कर्मण्य ही नहीं रखता, बल्कि उसके अंगों को भी सुडौल बनाए रखता है। नृत्य के जो साधारण गुण हैं, उन्हें घुमक्कड़ों से भिन्न, लोगों को भी जानना चाहिए। अफसोस है, हमारे देश में पिछली सात-आठ सदियों में इस कला की बड़ी अवहेलना हुई। इसे निम्न कोटि का व्यवसाय समझ कर तथाकथित उच्च वर्ग ने छोड़ दिया। ग्रामीण मजूर-जातियाँ नृत्यकला को अपनाए रहीं, उनमें से कितने ही नृत्यों को वर्तमान सदी के आरंभ तक अहीर, भर जैसी जातियों ने सुरक्षित रखा। लेकिन जब उनमें भी शिक्षा बढ़ने लगी, तथा “बड़ों” की नकल करने की प्रवृत्ति बढ़ी, तो वह भी नृत्य को छोड़ने लगे। पिछले तीस सालों में फरी (अहीरी) का नृत्य युक्त प्रांत और बिहार के जिले से लुप्त हो गया। जहाँ बचपन में कोई अहीर-विवाह हो ही नहीं सकता था, जिसमें वर-बधू के पुरुष संबंधी ही नहीं बल्कि माँ और सास ने नहीं नाचा हो। रूस के परिश्रमसाध्य सुंदर नृत्यों को देखकर मुझे अहीरी नृत्य का स्मरण आया और 1939 में उसे देखने की बड़ी इच्छा हुई, तो बड़ी मुश्किल से गोरखपुर जिले में एक जगह वह नृत्य देखने को मिला। मैं समझता था, बचपन के नृत्य का जो रूप स्मृति ने मेरे सामने रखा है, अतिशयोक्तिपूर्ण है, किंतु जब नृत्य को देखा, तो पता लगा कि स्मृति ने अतिशयोक्ति से काम नहीं लिया है। लेकिन इसका खेद बहुत हुआ कि इतना सुंदर नृत्य इतनी तेजी के साथ लुप्त हो चला। उसके बाद कुछ कोशिश भी की, कि उसे प्रोत्साहन दिया जाय किंतु मैं उस अवस्था से पार हो चुका था, जबकि नृत्य को स्वयं सीख सकूँ। उसके लिए आंदोलन करने को जितने समय की आवश्यउकता थी, उसे भी मैं नही दे सकता था।
फरी (अहीरी) नृत्य के अतिरिक्त हमारे देश में प्रदेश-भेद से विविध प्रकार के सुंदर नृत्य चलते हैं, और बहुत-से अभी भी जीवित हैं। पिछले तीस वर्षों से संगीत और नृत्य को फिर से उज्जीवित करने का हमारे देश में प्रयत्न हुआ है। जहाँ भद्र-महिलाओं के लिए नृत्य-गीत परम वर्जित तथा अत्यंत लांक्षनीय चीज समझी जाती थी, वहाँ अब भद्र-कुलों की लड़कियों की शिक्षा का वह एक अंग बन गया है। लेकिन अभी हमारा सारा ध्यान केवल उस्तादी नृत्य और संगीत पर है, जन-कला की ओर नहीं गया है। जनकला दरअसल उपेक्षणीय चीज नहीं है। जनकला के संपर्क के बिना उस्ताद नृत्य-संगीत निर्जीव हो जाता है।
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