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यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र

घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण

वाद्य से नृत्य लोगों को मित्र बनाने में कम सहायक नहीं होता। जिसकी उधर रुचि है, और यदि वह एक देश के 20-30 प्रकार के नृत्य को अच्छी तरह जानता है, उसे किसी देश के नृत्य को सीखने में बहुत समय नहीं लगेगा। यदि वह नृत्य में दूसरों के साथ शामिल हो जाए तो एकमयता के बारे में क्या कहना है! मैं अपने को भाग्यहीन समझता हूँ, जो नृत्य, और संगीत में से मैं किसी को नहीं जान पाया। स्वाभाविक रुचि का भी सवाल था। नवतरुणाई के समय प्रयत्न करने पर सीख जाता, इसमें भारी संदेह है। मैं यह नहीं कहता कि नृत्य, गीत, वाद्य को बिना सीखे घुमक्कड़ कृतकार्य नहीं हो सकता, और न यही कहता हूँ कि केवल परिश्रम करके आदमी इन ललित-कलाओं पर अधिकार प्राप्त कर सकता है। लेकिन इनके लाभ को देखकर भावी घुमक्कड़ों से कहूँगा कि कुछ भी रुचि होने पर वह संगीत-नृत्य-वाद्य को अवश्य सीखें।

नृत्य जान पड़ता है, वाद्य और संगीत से कुछ आसान है। कितनी ही बार बहुत लालसा से नवतरुणियों की प्रार्थना को स्वीकार करके मैं अखाड़े में नहीं उतर सका। कितनों को तो मेरे यह कहने पर विश्वास नहीं हुआ, कि मैं नाचना नहीं जानता। यूरोप में हरेक व्यक्ति कुछ-न-कुछ नाचना जानता है। पिछले साल (1948) किन्नरदेश के एक गाँव की बात याद आती है। उस दिन ग्राम में यात्रोत्सव था। मंदिर की तरफ से घड़ों नहीं कुंडो शराब बाँटी गई। बाजा शुरू होते ही अखाड़े में नर-नारियों ने गोल पांती (मंडली) बनानी शुरू की, जो बढ़ते-बढ़ते तेहरी पंक्ति में परिणत हो गई। किन्नरियों का कंठ जितना ठोस और मधुर होता है, उनका संगीत जितना सरल और हृदयग्राही होता है, नृत्य उतना क्या, कुछ भी नहीं होता। उस नृत्य में वस्तुत: परिश्रम होता नहीं दिख रहा था। जान पड़ता था, लोग मजे से एक चक्कर में धीरे-धीरे टहल रहे हैं। बस बाजे की तान पर शरीर जरा-सा आगे-पीछे झुक जाता। इस प्रकार यद्यपि नृत्य आकर्षक‍ नहीं था, किंतु यह तो देखने में आ रहा था कि लोग उसमें सम्मिलित होने के लिए बड़े उत्सुक हैं। हमारे ही साथ वहाँ पहुँचे कचहरी के कुछ कायस्थ (लिपिक) और चपरासी मौजूद थे। मैंने देखा, कुछ ही मिनटों में शराब की लाली आँखों में उतरते ही बिना कहे ही वह नृत्य-मंडली में शामिल हो गये, और अब उसी गाँव के एक व्यक्ति की तरह झूलने लगे। मैं वहाँ प्रतिष्ठित मेहमान था। मेरे लिए खास तौर से कुर्सी लाकर रखी गई थी। मैं उसे पसंद नहीं करता था। मुझे अफसोस हो रहा था - काश, मैं थोड़ा भी इस कला में प्रवेश रखता! फिर तो निश्चय ही मंदिर की छत पर कुर्सी न तोड़ता, बल्कि मंडली में शामिल हो जाता। उससे मेरे प्रति उनके भावों में दुष्परिवर्तन नहीं होता। पहले जैसे मैं दूर का कोई भद्र पुरुष समझा जा रहा था, नृत्य में शामिल होने पर उनका आत्मीय बन जाता। घुमक्कड़ नृत्यकला में अभिज्ञ होकर यात्राओं को बहुत सरस और आकर्षक बना सकता है, उसके लिए सभी जगह आत्मीय बंधु सुलभ हो जाते हैं। नृत्य, संगीत और वाद्य वस्तु‍त: कला नहीं, जादू हैं। पहिले बतला चुका हूँ, कि घुमक्कड़ मानवमात्र को अपने समान समझता है, नृत्य तो क्रियात्मक रूप से आत्मीय बनाता है।

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