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घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण

जिसकी संगीत की ओर प्रवृत्ति है, उसे भारतीय संगीत के साथ कुछ विदेशी संगीत का भी परिचय प्राप्त करना चाहिए। अपने देश के भोजन की तरह ही अपना संगीत भी अधिक प्रिय लगता है। आरंभ में तो आदमी अपने संगीत का अंध पक्षपाती होता है, और दूसरे देश के संगीत की अवहेलना करता है, तुच्छ समझता है। आदमी ऐसा जानबूझकर नहीं करता, बल्कि जिस तरह विदेशी भोजन के बारे में भी है। लेकिन जब विदेशी संगीत को ध्यान से सुनता है, बारीकियों से परिचय प्राप्त करता है, तो उसमें भी रस आने लगता है। यह अफसोस की बात है, कि हमारे देश में विदेशी संगीत को गुणीजन भी अवहेलना की दृष्टि से देखते हैं, इससे वह दूसरों को हानि नहीं पहुँचा सकते, हाँ, अपने संबंध में अवश्य बुरी धारणा पैदा करा सकते हैं। हम विदेशी संगीत के साथ सहानुभूति का अभ्यास कर इस कमी को दूर कर सकते हैं। संगीत, विशेषकर विदेशी संगीत के परिचय में भी बहुत सुभीता होगा, यदि हम पश्चिम की संगीत की संकेत-लिपि को सीखें। हमारे देश में अपनी अलग स्वरलिपि बनाई गई है, और उसमें भी भिन्न-भिन्न आचार्यों ने अलग-अलग स्वरलिपि चलानी चाही है। पाश्चात्य स्वरलिपि तोक्यो, रोम से सानफ्रांसिस्को तक प्रचलित है। कोई जापानी यह शिकायत करते नहीं पाया जाता कि उसका संगीत पश्चिमी स्वरलिपि में नहीं लिखा जा सकता। लेकिन हमारे गुण कहते हैं, कि भारतीय संगीत को पश्चिमी स्वरलिपि में नहीं उतारा जा सकता। पहले तो मैं यह कहने का साहस नहीं कर सकता था, लेकिन रूस के एक तरुण संगीतज्ञ ने जब भारतीय ग्रामोफोन रेकार्ड से हमारे उस्तादी संगीत को यूरोपीय स्वरलिपि में उतार कर पियानों पर बजा दिया, उस दिन से मुझे विश्वास हो गया, कि हमारे संगीत को पश्चिमी स्वरलिपि में उतारा जा सकता है। हाँ, उसमें जहाँ-तहाँ हल्का-सा परिवर्तन करना पड़ेगा। आखिर संस्कृत और पाली लिखने के लिए भी रोमन लिपि का प्रयोग करते वक्त थोड़े-से संकेतों में परिवर्तन की आवश्यकता पड़ी। संगीत के संबंध में भी इसी तरह कुछ चिह्न बढ़ाने पड़ेंगे। मैं समझता हूँ, पश्चिमी स्वरलिपि को न अपनाकर हम अपनी हानि कर रहे हैं। जिन देशों में वह स्वरलिपि स्वीकार कर ली गई हैं, वहाँ लाखों लड़के-लड़कियाँ इस स्वरलिपि में छपे ग्रंथों से संगीत का आनंद लेते हैं। हमारा संगीत यदि पश्चिमी स्वरलिपि में लिखा जाय, तो वहाँ के संगीत प्रेमियों को उससे परिचय प्राप्त करने का अच्छा अवसर मिलेगा, और फिर वह हमारी चीज की कदर करने लगेंगे।

खैर, पश्चिमी स्वरलिपि को हमारे गुणीजन कब स्वीकार करेंगे, इसे समय बतलायगा, किंतु हमारे घुमक्कड़ी के पास तो ऐसी संकीर्णता नहीं फटकनी चाहिए। उन्हें पश्चिमी स्वरलिपि द्वारा भी संगीत सीखना चाहिए। इसके द्वारा वह स्वदेशी और विदेशी दोनों संगीतों के पास पहुँच सकते हैं, उनका आनंद ले सकते हैं, इतना ही नहीं, बल्कि अज्ञात देशों में जाकर उनके संगीत का आसानी से परिचय प्राप्त कर सकते हैं।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है, कि घुमक्कड़ के लिए नृत्य, वाद्य और संगीत तीनों का भारी उपयोग है। वह इन ललित-कलाओं द्वारा किसी भी देश के लोगों में आत्मीयता स्थापित कर सकता है, और कहीं भी एकांतता का अनुभव नहीं कर सकता। जो बात इन ललित-कलाओं तरुण घुमक्कड़ों के लिए कही गई है, वही बात तरुणी-घुमक्कड़ों के लिए भी हो सकती है। घुमक्कड़-तरुणी को नृत्य-वाद्य-संगीत का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। घूमने में बहुत सुभीता होगा, यदि वह पुस्त़की ज्ञान से ऊपर संगीत के समुद्र में गोता लगाएँ।


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