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यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र

घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण

पिछड़ी जातियों के पास जीवनोपयोगी सामग्री जमा करने के साधन पुराने होते हैं। वहाँ उद्योग-धंधे नहीं होते, इसीलिए वह ऐसी जगहों पर ही जीवित रह सकती हैं, जहाँ प्रकृति प्राकृतिक रूप से भोजन-छाजन देने में उदार है, इसीलिए वह सुंदर से सुंदर आरण्यक और पार्वत्य दृश्यों के बीच में वास करती हैं। घुमक्कड़ इन प्राकृतिक सुषमाओं का स्वयं आनंद ले सकता है और अपनी लेखनी तथा तूलिका द्वारा दूसरों को भी दिला सकता है। घुमक्कड़ को पहली बात जो ध्यान रखनी है, वह है समानता का भाव - अर्थात् उन लोगों में समान रूप से घुलमिल जाने का प्रयत्न करना। शारीरिक मेहनत का वहाँ भी उपयोग हो सकता है, किंतु वह जीविका कमाने के लिए उतना नहीं, जितना कि आत्मीयता स्थापित करने के लिए। नृत्य और वाद्य यह दो चीजें ऐसी हैं, जो सबसे जल्दी घुमक्कड़ को आत्मी‍य बना सकती हैं। इन लोगों में नृत्य, वाद्य और संगीत श्वास की तरह जीवन के अभिन्न अंग हैं। वंशीवाले घुमक्कड़ को पूरी बंधुता स्थापित करने के लिए दो दिन की आवश्यकता होगी। यद्यपि सभ्यता का मानदंड सभी जातियों का एक-सा नहीं है और एक जगह का सभ्यता-मानदंड सभी जगह मान्य नहीं हुआ करता, इसका यह अर्थ नहीं कि उसकी हर समय अवहेलना की जाय, तो भी सभ्य जातियों में जाने पर उनका अनुसरण अनुकरणीय है। यदि कोई यूरोपीय जूठे प्याले में चम्मच डालकर उससे फिर चीनी निकालने लगता है, तो हमारे शुद्धिवादी भाई नाक-भौं सिकोड़ते हैं। यूरोपीय पुरुष को यह समझना मुश्किल नहीं है, क्यों कि चिकित्सा विज्ञान में जूठे के संपर्क को हानिकर बतलाया गया है। इसी तरह हमारे सभ्य भारतीय भी कितनी ही बार भद्दी गलती करते हैं, जिसे देखकर यूरोपीय पुरुष को घृणा हो जाती है, जूठे का विचार रखते हुए भी वह कान और नाक के मल की ओर ध्यारन नहीं देते। लोगों के सामने दाँत में अँगुली डाल के खरिका करते हैं, यह पश्चिम के भद्रसमाज में बहुत बुरा समझा जाता है। इसी तरह हमारे लोग नाक या आँख पोंछने के लिए रूमाल का इस्तेमाल नहीं करते, और उसके लिए हाथ को ही पर्याप्त समझते हैं, अथवा बहुत हुआ तो उनकी धोती, साड़ी का कोना ही रूमाल का काम देता है। यह बातें शुद्धिवाद के विरुद्ध हैं।

पिछड़ी जातियों के भी कितने ही रीति-रिवाज हो सकते हैं, जो हमारे यहाँ से विरुद्ध हों, लेकिन ऐसे भी नियम हो सकते हैं, जो हमारी अपेक्षा अधिक शुद्धता और स्वास्थ्य के अनुकूल हों। रीति-रिवाजों की स्थापना में सर्वदा कोई पक्का तर्क काम नहीं करता। अज्ञात शक्तियों के कोप का भय कभी शुद्धि के ख्याल में काम करता है, कभी किसी अज्ञात भय का आतंक। नवीन स्थांन में जाने पर यह गुर ठीक है कि लोगों को जैसा करते देखो, उसकी नकल तुम भी करने लगो। ऐसा करके हम उनको अपनी तरफ आकृष्ट करेंगे और बहुत देर नहीं होगी, वह अपने हृदय को हमारे लिए खोल देंगे।

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