यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
हाँ, यह मानना पड़ेगा कि सहस्राब्दियों की परतंत्रता के कारण स्त्री की स्थिति बहुत ही दयनीय हो गई है। वह अपने पैरों पर खड़ा होने का ढंग नहीं जानती। स्त्री सचमुच लता बना के रखी गई है। वह अब भी लता बनकर रहना चाहती है, यद्यपि पुरुष की कमाई पर जीकर उनमें कोई-कोई 'स्वतंत्रता' 'स्वतंत्रता' चिल्लाती हैं। लेकिन समय बदल रहा है। अब हाथ-भर का घूँघट काढ़ने वाली माताओं की लड़कियाँ मारवाड़ी जैसे अनुदार समाज में भी पुरुष के समकक्ष होने के लिए मैदान में उतर रही हैं। वह वृद्ध और प्रौढ़ पुरुष धन्यवाद के पात्र हैं, जिन्होंने निराशापूर्ण घड़ियों में स्त्रियों की मुक्ति के लिए संघर्ष किया, और जिनके प्रयत्नों का अब फल भी दिखाई पड़ने लगा है। लेकिन साहसी तरुणियों को समझना चाहिए कि एक के बाद एक हजारों कड़ियों से उन्हें बाँध के रखा गया है। पुरुष ने उसके रोम-रोम पर काँटी गाड़ रखी है। स्त्री की अवस्थाँ को देखकर बचपन की एक कहानी याद आती है - न सड़ी न गली एक लाश किसी निर्जन नगरी के प्रासाद में पड़ी थी। लाश के रोम-रोम में सूइयाँ गाड़ी हुई थीं। उन सूइयों को जैसे-जैसे हटाया गया, वैसे-ही-वैसे लाश में चेतना आने लगी। जिस वक्त आँख पर गड़ी सूइयों को निकाल दिया गया उस वक्त लाश बिलकुल सजीव हो उठ बैठी और बोली “बहुत सोये।” नारी भी आज के समाज के उसी तरह रोम-रोम में परतंत्रता की उन सूइयों से बिंधी है, जिन्हें पुरुषों के हाथों ने गाड़ा है। किसी को आशा नहीं रखनी चाहिए कि पुरुष उन सूइयों को निकाल देगा।
उत्साह और साहस की बात करने पर भी यह भूलने की बात नहीं है, कि तरुणी के मार्ग में तरुण से अधिक बाधाओं के मारे किसी साहसी ने अपना रास्ता निकालना छोड़ दिया। दूसरे देशों की नारियाँ जिस तरह साहस दिखाने लगी हैं, उन्हें देखते हुए भारतीय तरुणी क्यों पीछे रहे?
हाँ, पुरुष ही नहीं प्रकृति भी नारी के लिए अधिक कठोर है। कुछ कठिनाइयाँ ऐसी हैं, जिन्हें पुरुषों की अपेक्षा नारी को उसने अधिक दिया है। संतति-प्रसव का भार स्त्री के ऊपर होना उनमें से एक है। वैसे नारी का ब्याह, अगर उसके ऊपरी आवरण को हटा दिया जाय तो इसके सिवा कुछ नहीं है कि नारी ने अपनी रोटी-कपड़े और वस्त्राभूषण के लिए अपना शरीर सारे जीवन के निमित्त किसी पुरुष को बेच दिया है। यह कोई बहुत उच्च् आदर्श नहीं है, लेकिन यह मानना पड़ेगा, कि यदि विवाह का यह बंधन भी न होता, तो अभी संतान के भरण-पोषण में जो आर्थिक और कुछ शारीरिक तौर से भी पुरुष भाग होता है, वह भी न लेकर वह स्वच्छंद विचरता और बच्चों की सारी जिम्मेवारी स्त्री के ऊपर पड़ती। उस समय या तो नारी को मातृत्व से इंकार करना पड़ता। या सारी आफत अपने ऊपर मोल लेनी पड़ती। यह प्रकृ़ति का नारी के ऊपर अन्याय है, लेकिन प्रकृति ने कभी मानव पर खुलकर दया नहीं दिखाई, मानव ने उसकी बाधाओं के रहते उस पर विजय प्राप्त की।
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