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यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र

घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण

स्त्रियों को घुमक्कडी के लिए प्रोत्साहित करने पर कितने ही भाई मुझसे नाराज होंगे, और इस पथ की पथिका तरुणियों से तो और भी। लेकिन जो तरुणी मनस्विनी और कार्यार्थिनी है, वह इसकी पर्वाह नहीं करेगी, यह मुझे विश्वास है। उसे इन पीले पत्तों की बकवाद पर ध्यान नहीं देना चाहिए। जिन नारियों ने आँगन की कैद छोड़कर घर से बाहर पैर रखा है, अब उन्हें बाहर विश्व में निकलना है। स्त्रियों ने पहले-पहल जब घूँघट छोड़ा तो क्या कम हल्ला मचा था, और उन पर क्या कम लांछन लगाये गये थे? लेकिन हमारी आधुनिक-पंचकन्या‍ओं ने दिखला दिया कि साहस करने वाला सफल होता है, और सफल होने वाले के सामने सभी सिर झुकाते हैं। मैं तो चाहता हूँ, तरुणों की भाँति तरुणियाँ भी हजारों की संख्या में विशाल पृथ्वी पर निकल पड़ें और दर्जनों की तादाद में प्रथम श्रेणी की घुमक्कड़ा बनें। बड़ा निश्चय करने के पहले वह इस बात को समझ लें, कि स्त्री का काम केवल बच्चा पैदा करना नहीं है। फिर उनके रास्ते की बहुत कठिनाइयाँ दूर हो सकती है। यह पंक्तियाँ कितने ही धर्मधुरंधरों के दिल में काँटे की तरह चुभेंगी। वह कहने लगेंगे, यह वज्रनास्तिक हमारी ललनाओं को सती-सावित्री के पथ से दूर ले जाना चाहता है। मैं कहूँगा, वह काम इस नास्तिक ने नहीं किया, बल्कि सती-सावित्री के पथ से दूर ले जाने का काम सौ वर्ष से पहले ही हो गया, जब कि लार्ड विलियम बेंटिक के जमाने में सती प्रथा को उठा दिया गया। उस समय तक स्त्रियों के लिए सबसे ऊँचा आदर्श यही था, कि पति के मरने पर वह उसके शव के साथ जिंदा जल जायँ। आज तो सती-सावित्री के नाम पर कोई धर्मधुरंधर - चाहे वह श्री 108 करपात्री जी महाराज हों, या जगद्गुरु शंकराचार्य - सती प्रथा को फिर से जारी करने के लिए सत्याग्रह नहीं कर सकता, और न ऐसी माँग के लिए कोई भगवा झंडा उठा सकता है। यदि सती-प्रथा-अर्थात् जीवित स्त्रियों का मृतक पति के साथ जाय तो, मैं समझता हूँ, आज की स्त्रियाँ सौ साल पहले की अपनी नगड़दादियों का अनुसरण करके उसे चुपचाप स्वीकार नहीं करेंगी, बल्कि वह सारे देश में खलबली मचा देंगी। फिर यदि जिंदा स्त्रियों को जलती चिता पर बैठाने का प्रयत्न हुआ, तो पुरुष समाज को लेने-के-देने पढ़ जायँगे। जिस तरह सती-प्रथा बार्बरिक तथा अन्याय मूलक होने के कारण सदा के लिए ताक पर रख दी गई, उसी तरह स्त्री के उन्मुक्त-मार्ग की जितनी बाधाएँ हैं, उन्हें एक-एक करके हटा फेंकना होगा।

स्त्रियों को भी माता-पिता की संपत्ति में दायभाग मिलना चाहिए, जब यह कानून पेश हुआ, तो सारे भारत के कट्टर-पंथी उसके खिलाफ उठ खड़े हुए। आश्चर्य तो यह है कि कितने ही उदार समझदार कहे जाने वाले व्यक्ति भी हल्ला-गुल्ला् करने वालों के सहायक बन गये। अंत में मसौदे को खटाई में रख दिया गया। यह बात इसका प्रमाण है कि तथाकथित उदार पुरुष भी स्त्री के संबंध में कितने अनुदार हैं।

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