यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
कई घुमक्कड़ों ने जरा-सी असावधानी से अपने लक्ष्य को खो दिया, और बैल बनकर खूँटे से बँध गये। कहाँ उनका वह जीवन, जबकि वह सदा चलते-घूमते अपने मुक्त जीवन और व्यापक ज्ञान से दूसरों को लाभ पहुँचाते रहे, और कहाँ उनका चरम पतन? मुझे आज भी अपने एक मित्र की करुण-कहानी याद आती है। उसकी घुमक्कड़ी भारत से बाहर नहीं हुई थी, लेकिन भारत में वह काफी घूमा था, यदि भूल न की होती, तो बाहर भी बहुत घूमता। वह प्रतिभाशाली विद्वान था। मैं उसका सदा प्रशंसक रहा, यद्यपि न जानने के कारण एक बार उसकी ईर्ष्या हो गई थी। घूमते-घूमते वह गुड़ की मक्खी बन गया, पंख बेकार हो गये, फिर क्या था, द्विपाद से चतुष्पाद तक हो थोड़े रुक सकता था। षट्पद, अष्टपद शायद द्वादशपाद तक पहुँचा। सारी चिंताएँ अब उसके सिर पर आ गई। उसका वह निर्भीक और स्वतंत्र स्वभाव सपना हो चला, जब कि नून तेल लड़की की चिंता का वेग बढ़ा। नून-तेल-लकड़ी जुटाने की चिंता ने उसके सारे समय को ले लिया और अब वह गगन-बिहारी हारिल जमीन पर तड़फड़ा रहा था। चिंताएँ उसके स्वास्थ्य को खाने लगीं और मन को भी निर्बल करने लगीं। वह अद्भुत प्रतिभाशाली स्वतंत्रचेता विद्वान - जिसका अभाव मुझे कभी-कभी बहुत खिन्न कर देता है - अंत में अपनी बुद्धि खो बैठा, पागल हो गया। खैरियत यही हुई कि एक-दो साल ही में उसे इस दुनिया और उसकी चिंता से मुक्ति मिल गई। यदि वह असाधारण मेधावी पुरुष न होता, यदि वह बड़े-बड़े स्वप्नों को देखने की शक्ति नहीं रखता, तो साधारण मनुष्य की तरह शायद कैसे ही जीवन बिता देता। उसको ऐसा भयंकर दंड इसीलिए मिला कि उसने जीवन के सामने जो उच्च लक्ष्य रखा था, जिसे अपनी गलती के कारण उसे छोड़ना पड़ा था, वही अंत में चरम निराशा और आत्मग्लानि का कारण बना। घुमक्कड़ तरुण अब अपने महान आदर्श के लिए जीवन समर्पित करे, तो उसे पहले सोच और समझ लेना होगा कि गलतियों के कारण आदमी को कितना नीचे गिरना पड़ता है और परिणाम क्या होता है।
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