यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
1395 ई. में तैमूर रूस के मंगोल शासकों पर चढ़ाई करते हुए मास्को तक गया। उसकी सेना उत्तर में बढ़ते-बढ़ते बहुत दूर चली गई, जहाँ रात्रि नाम मात्र की रह गई। तैमूर के सौभाग्य से रोजे का दिन नहीं था, नहीं तो या तो धर्म छोड़ना होता था प्राण देना पड़ता। तो भी ये समस्या थी कि 20 घंटे के दिन में पाँचों नमाजों को कैसे बाँटा जाय। तैमूर ने तीन साल बाद 1398 ई. में दिल्ली भी लूटी, लेकिन शायद उस वक्त के दिल्ली वालों को तैमूर के सिपाहियों की इस बात पर विश्वास नहीं होता। बहुत दूर उत्तरी ध्रुव में छ महीने का दिन और छ महीने की रात होती है। मैंने तो लेनिनग्राद में भी देखा कि गर्मियों के प्राय: तीन महीने, जिसमें जुलाई और अगस्त भी शामिल हैं, रात्रि होती ही नहीं। दस बजे सूर्यास्त हुआ, दो घंटा गोधूलि ने लिया और अगले दो घंटों को उषा ने। इस प्रकार रात बेचारी के लिए अवकाश ही नहीं रह जाता, और रात को भी आप घर से बाहर बिना चिराग के अखबार पढ़ सकते हैं।
इन भौगोलिक विचित्रताओं का थोड़ा-बहुत ज्ञान घुमक्कड़ को अपनी प्रथम यात्रा से पहले होना चाहिए। जब वह किसी खास देश में विचरने जा रहा हो, तो उसके बारे में बड़े नक्शे को लेकर सभी चीजों का भली भाँति अध्ययन करना चाहिए। तिब्बत और भारत के बीच में उत्तुंग हिमालय की पर्तवमालाएँ हैं, लेकिन वह कभी मनुष्य के लिए दुर्लंघ्य नहीं रहीं। कश्मीर से लेकर आसाम तक कई सौ ऐसे पर्वत-कंठ हैं, जिनसे पर्वत-पृष्ठों को पार किया जा सकता है। हाँ, सभी सुगम नहीं हैं, न सभी रास्तों में बस्तियाँ आसानी से मिलती हैं, इसलिए अपरिचित व्यक्ति को ऐसे ही डांडों को पकड़ना पड़ता है, जिनसे प्रधान रास्ते जाते हैं। जहाँ राज्य की तरफ से दिक्कतें हैं, वहाँ भेस बदलकर रास्तों को पार किया जा सकता है, अथवा अप्रचलित रास्तों को स्वीकार करना पड़ता है।
नक्शे को देखकर आसाम, भूटान, सिक्किम, नेपाल, कुमायूँ, टिहरी, बुशहर, काँगड़ा और कश्मीर से तिब्बत की ओर जाने वाले रास्तों, उनकी बस्तियों तथा भिन्न-भिन्न स्थानों की पहाड़ी ऊँचाइयों को जिसने देख लिया है, उसके लिए कितनी ही बातें साफ हो जाती हैं। एक डांडा पार कर लेने पर तो दूसरे रास्ते की जानकारी स्वयं ही बहुत-सी हो जाती है। जिसमें घुमक्कड़ी का अंकुर निहित है, उसे दो-चार मर्तबा देखा नक्शा आँख मूँदने पर भी दिखलाई पड़ता है। कम-से-कम नक्शे के साथ उसका अत्यधिक प्रेम तो होता ही है। यह भी स्मरण रखना चाहिए कि छिपकर की गई यात्राओं में अक्सर नक्शे का पास रखना ठीक नहीं होता, कभी-कभी तो उसका कारण विदेशी गुप्तुचर माना जाने लगता है, इसलिए घुमक्कड़ यदि नक्शे को दिमाग में बैठा ले, तो अच्छा है। कभी-कभी सुपरिचित-सी साधारण पुस्तिका के छपे नक्शे से भी काम लिया जा सकता है। नक्शा ही नहीं, बाज वक्त तो पुस्तक को भी छोड़ देना पड़ता है। प्रथम तिब्बत-यात्रा में, पहले जिस अंग्रेजी पुस्तक से मैंने तिब्बती भाषा का अध्ययन किया था, उसे एक स्थान पर छोड़ देना पड़ा, और नक्शों को नदी में बहाना पड़ा।
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