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यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र

घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण

स्त्रियों की बात लीजिए। मैं मेरठ की स्त्रियों के बारे में कहूँगा, जिनका मुझे तीस बरस का ज्ञान है - तेईस चौबीस बरस का तो बिलकुल प्रत्यक्ष ज्ञान। वर्तमान शताब्दी का जब यह फटा, तो मेरठ के मध्यम वर्ग में एक विचित्र प्रकार की खलबली मची हुई थी। कितने ही साक्षर और शिक्षित पुरुषों ने ऋषि दयानंद की पाखंड-खंडनी ध्वजा हाथ में उठाई थी। सनातनी पंडितों ने व्यवस्था दी थी -

स्त्री शूद्रौ नाधीयेताम्” अर्थात् स्त्रियों और शूद्रों को विद्या नहीं पढ़ानी चाहिए। 

पाखंड-खंडनी वाले भक्तों ने स्त्रियों को पढ़ाने का बीड़ा उठाया था। बीड़ा घर से ही आरंभ हो सकता था। उस पीढ़ी का आग्रह आज की दृष्टि से कुछ भी नहीं था। वे स्त्रियों को अंग्रेजी पढ़ाने के विरोधी थे, और चाहते थे कि उन्हें संध्या गायत्री करने तथा चिट्ठी-पत्री लिखने-भर को आर्यभाषा (हिंदी) आ जानी चाहिए। परम लक्ष्य इतना ही था, कि हो सके तो गृहकार्य में निपुण होने के बाद स्त्रियाँ वेद-शास्त्र की बातें भी कुछ जान लें। पहली पीढ़ी की, जो प्रथम विश्व-युद्ध के समय तैयार हुई थी, आर्य-ललनाओं ने अपने नवशिक्षित तरुण पतियों के संसर्ग से कुछ और भी आगे पढ़ना पसंद किया, उनकी लड़कियों में कोई-कोई कालेज तक पहुँच गई। इन लड़कियों ने गांधीजी के दो युद्धों में भी भाग लिया और आँगन से ही बाहर नहीं जेलों की भी हवा खा आईं। आज आर्य ललनाओं की तीसरी पीढ़ी तैयार है और उनमें से बहुतेरी यूरोपीय ललनाओं से एक तल पर मुकाबला कर सकती हैं - अंतर होगा तो केवल रंग और साड़ी का। आर्य ललनाओं की सासें यदि अब तक जीवित रहतीं, तो जरूर उन्हें आत्म-हत्या करनी पड़ती। बूढ़ी आर्य ललनाएँ कहीं एकाध बच पाई हैं, उनकी अवस्था हमारे मित्र वृद्ध स्वामी जी से कम दयनीय नहीं हैं। और अब तो जब कि वर्तमान पीढ़ी के तरुण-तरुणी ब्याह-शादी में वृद्धों के दखल को असह्य मानते, जात-पांत और दूसरी बातों का ख्याल ताक पर रखके मनमानी कर रहे हैं, तो आर्य ललनाओं की अवस्था क्या होगी, इसे कहने की आवश्यकता नहीं। हम समझते हैं कम-से-कम और नहीं तो इन पुरानी पीड़ियों को भयंकर साँसत से बचाने के लिए ही मृत्यु् को न आने पर बुलाकर लाने की जरूरत पड़ेगी।

वस्तुत: प्रथम श्रेणी का घुमक्कड़ वृद्धों के सठियाने का पक्षपाती नहीं हो सकता। वह यही कहेगा कि इन फोसीलो का स्थान जीवित मानव-समाज नहीं, बल्कि म्यूजियम है। यदि फोसीलों का युग होता तो घुमक्कड़-शास्त्र लिखने वाले के ऊपर क्या बीतती, इसे कहने की आवश्यकता नहीं। इन पंक्तियों का लेखक वृद्धों का शत्रु नहीं हितैषी है। उनके हित पर विचार करके ही वह समझता है कि समय बीत जाने के बाद उस चीज के लिए यही अच्छा है कि लोगों की दृष्टि से ओझल हो जाय।

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