यात्रा वृत्तांत >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
मृत्यु को नाहक ही भय की वस्तु समझा जाता है। यदि जीवन में कोई अप्रिय वस्तु है तो वह वस्तुत: मृत्यु् नहीं है, मृत्यु का भय है। मृत्यु के हो जाने के बाद तो वह कोई विचारने की बात ही नहीं। मृत्यु जिस वक्त आती है, आम तौर से देखा जाता है कि मूर्च्छा उससे कुछ पहले ही पहुँच जाती है, और मनुष्य मृत्यु के डरावने रूप को देख ही नहीं पाता, फिर भय और अप्रिय घटना का सवाल ही क्या हो सकता है? मृत्यु अपने रूप में तो कहीं कोई अप्रियता नहीं लाती। मृत्युप को दरअसल जिस तरह साधारण बातचीत में हम अप्रिय समझते हैं, वह ऐसी अप्रिय नहीं है। कितनी बार साधारण आदमी भी जीवन छोड़ मृत्यु को पसंद करता है। कोई अपने सम्मान के लिए मृत्यु का आलिंगन करता है, कोई देश-समाज के लिए मृत्यु को स्वीकार करता है। खुदीराम बोस ने जब पहले-पहल देश की स्वतंत्रता के लिए तरुणों को सर्वस्व उत्सर्ग का रास्ता दिखलाते हुए मृत्यु को चुना, तो क्या आखिरी घड़ी तक कभी उस तरुण के हृदय में अफसोस या ग्लानि हुई? खुदीराम के बाद सैकड़ों तरुणों ने उसी पथ का अनुसरण किया। भगतसिंह के लिए क्या मृत्यु् कोई चीज थी? खुदीराम और उनके नजदीकी वीरों को यह विश्वास करके भी सांत्वना हो सकती थी, कि वह गीता के अनुसार मरकर फिर जन्म लेंगे और फिर देश के बलिदान होंगे, लेकिन भगतसिंह को तो ऐसा कोई विश्वार नहीं था। द्वितीय विश्व-युद्ध में रूस के लाखों तरुण-तरुणियों ने मृत्यु से परिहास किया। इससे साबित हो जाता है कि मृत्यु वैसी भयंकर चीज नहीं हैं, जैसा कि लोग समझते हैं। घुमक्कड़ तरुण तो इन लाखों पुरुषों में सबसे निर्भीक व्यक्तियों की श्रेणी में है, उसको क्यों मृत्यु की चिंता होने लगी?
मृत्यु के साथ ही आदमी को कीर्ति का ख्याल आता है। जीवित अवस्था की कीर्ति को - जो मरने के बाद भी जीवित रहती है - कितने ही तो कीर्ति-कलेवर कहते हैं, अर्थात् इसी भौतिक शरीर का वह आगे बढ़ा हुआ शरीर कीर्ति के रूप में हैं। कीर्ति का ख्याल बुरा नहीं है, क्योंकि इससे आदमी वैयक्तिक स्वार्थ से ऊपर उठता है, वह अपने वर्तमान के लाभ को तिलांजलि देता है। यह सब कुछ कीर्ति-लोभ के लिए करता है। कीर्ति-लोभ मनुष्य को बहुत से सुकर्मों के लिए प्रेरित करता है। कई शताब्दियों तक खड़े रहने वाले अजंता, एलोरा, भाजा और कार्ले के गुहाप्रसाद, यद्यपि आज लोगों के रहने के काम नहीं आते, लेकिन शताब्दियों तक वह निवास-गृह की तरह इस्तेमाल होते रहे। यह लाभ कई पीढ़ियों को उनके निर्माताओं की कीर्ति-लिप्सा के कारण ही हो पाया। जब हम कला, वास्तु शास्त्र और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से देखते हैं, तब तो कीर्ति-लोभ का महत्व और अधिक जान पड़ता है। यद्यपि कितनी ही अचल कीर्तियों के बारे में नाम अमर होने की बात भ्रम होती है, जब कि हम कर्त्ता का नाम तक नहीं जानते। भारतवर्ष के कितने ही स्तंभों, स्तूपों और गुहा-प्रासादों की यही बात है। सभी पर अशोक के शिला-स्तंभों की भाँति अभिलेख नहीं हैं, और कितनों को हम कल्पाना से नाम देना चाहते हैं। हम साधारण आदमियों के इस भ्रम को हटाना नहीं चाहते, कि ऐसे काम से उनका नाम अमर होगा। संतान के द्वारा अमर होने की धारणा लोगों के हृदयों में कितनी बद्धमूल हैं, जबकि यह सभी देखते हैं कि अपने परदादा का नाम बिरले ही लोग जानते हैं।
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