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धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग

ज्ञानयोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9578
आईएसबीएन :9781613013083

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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन


'यदि मैं मिट्टी के एक टुक्रड़े को जान लूँ तो मैं मिट्टी की सम्पूर्ण राशि को जान लूँगा।' सारा विश्व इसी योजना पर बना है। व्यक्ति तो मिट्टी के एक टुकड़े के समान केवल एक अंश है। यदि हम मानव आत्मा के, जो कि एक अणु है, प्रारम्भ और सामान्य इतिहास को जान लें तो हम सम्पूर्ण प्रकृति को जान लेंगे। जन्म, वृद्धि, विकास, जरा, मृत्यु - सम्पूर्ण प्रकृति में यही क्रम है और यह वनस्पति तथा मनुष्य में समान रूप से विद्यमान है। भिन्नता केवल समय की है। पूरा चक्र एक. दृष्टान्त में एक दिन में पूर्ण हो सकता है और दूसरे में 70 वर्ष में, पर ढंग एक ही है। विश्व के विश्वसनीय विश्लेषण तक पहुँचने का एकमात्र मार्ग स्वयं हमारे मन का विश्लेषण है। अपने धर्म को समझने के लिए एक सम्यक् मनोविज्ञान आवश्यक है। केवल बुद्धि से ही सत्य तक पहुँचना असम्भव है, क्योंकि अपूर्ण बुद्धि स्वयं अपने मौलिक आधार का अध्ययन नहीं कर सकती। इसलिए मन को अध्ययन करने का एकमात्र उपाय तथ्यों तक पहुँचने का है, तभी बुद्धि उन्हें विन्यस्त करके उनसे सिद्धान्तों को निकाल सकेगी। बुद्धि को घर बनाना पड़ता है, पर बिना ईंटों के वह ऐसा नहीं कर सकती, और वह ईटें बना नहीं सकती। ज्ञानयोग तथ्यों तक पहुँचने का सब से निश्चित मार्ग है।

मन के शरीर-विज्ञान को लें। हमारी इन्द्रियाँ हैं, जिनका वर्गीकरण ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों में किया जाता है। इन्द्रियों से मेरा अभिप्राय बाह्य इन्द्रिय-यन्त्रों से नहीं है। मस्तिष्क में नेत्र-संम्बन्धी केन्द्र दृष्टि का अवयव है, केवल आँख नहीं। यही बात हर अवयव के सम्बन्ध में है, उसकी क्रिया आभ्यन्तरिक होती है, केवल मन में प्रतिक्रिया होने पर ही विषय का वास्तविक प्रत्यक्ष होता है। प्रत्यक्षीकरण के लिए पेशीय और संवेद्य नाड़ियाँ आवश्यक हैं।

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