धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
|
7 पाठकों को प्रिय 335 पाठक हैं |
स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
जो मनुष्य पूर्ण हो चुका है, उसके लिए अपने ज्ञान-प्रयोग के अतिरिक्त और कुछ करना शेष नहीं रह जाता। वह केवल संसार की सहायता करने के लिए जीवित रहता है, अपने लिए वह कुछ कामना नहीं करता। जिससे भेद उत्पन्न होता है, वह तो निषेधात्मक है। भावात्मक (सकारात्मक) तो सदैव अधिक से अधिकतर विस्तृत होता जाता है। जो हममें सामान्य रूप से विद्यमान है, वह सब से अधिक विस्तृत है और वह है 'सत् या अस्तित्व।‘
नियम घटनाओं की एक माला की व्याख्या के लिए एक मानसिक शार्टहैण्ड या सांकेतिक लिपि है, किन्तु एक सत्ता के रूप में, ऐसा कहना चाहिए, नियम का कोई अस्तित्व नहीं है। गोचर संसार में कतिपय घटनाओं के नियमित क्रम को व्यक्त करने के लिए हम इस (नियम) शब्द का प्रयोग करते हैं। हमें नियम को एक अन्धविश्वास न बन जाने देना चाहिए, कुछ ऐसे अपरिहार्य सिद्धान्त न बनने देना चाहिए, जो हमें मानना ही पड़े। बुद्धि से भूल तो अवश्य होती है, किन्तु भूल को जीतने का संघर्ष ही तो हमें देवता बनाता है। शरीर के दोष को निकालने के लिए रोग प्रकृति का एक प्रकार से संघर्ष है, और हमारे भीतर से पशुत्व को निकालने के लिए पाप हमारे भीतर के देवत्व का संघर्ष है। हमें ईश्वरत्व तक पहुँचने के लिए कभी-कभी भूल या पाप करना होगा।
किसी पर दया न करो। सब को अपने समान देखो। अपने को असाम्य रूप आदिम पाप से मुक्त करो। हम सब समान हैं और हमें यह न सोचना चाहिए, 'मैं भला हूँ और तुम बुरे हो और मैं तुम्हारे पुनरुद्धार का प्रयत्न कर रहा हूँ।' साम्य भाव मुक्त पुरुष का लक्षण है। ईसा मसीह नाकेदारों और पापियों के पास गये थे और उनके पास रहे थे। उन्होंने कभी अपने को ऊँचा नहीं समझा। केवल पापी ही पाप देखता है। मनुष्य को न देखो, केवल प्रभु को देखो। हम स्वयं अपना स्वर्ग बनाते है और नरक में भी स्वर्ग बना सकते हैं। पापी केवल नरक में मिलते हैं, और जब तक हम उन्हें अपने चारों ओर देखते हैं - हम स्वयं वहाँ (नरक में) होते हैं। आत्मा न तो काल में है और न देश में है। अनुभव करो, 'मैं पूर्ण चित् पूर्ण सत् और पूर्ण आनन्द हूँ - सोऽहमस्मि, सोऽहमस्मि।'
|