धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
जन्म पर प्रसन्न हो, मृत्यु पर प्रसन्न हो, सदैव ईश्वर के प्रेम में आनन्द मनाओ, शरीर के बन्धन से मुक्ति प्राप्त करो। हम उसके दास हो गये हैं और हमने अपनी शृंखलाओं को हृदय से लगाना और अपनी दासता से प्रेम करना सीख लिया है - इतना अधिक कि हम उसे चिरन्तन करना चाहते हैं और सदा-सदा के लिए 'शरीर' के साथ चलना चाहते हैं। देह-बुद्धि से आसक्त न होना और भविष्य में दूसरा शरीर धारण करने की आशा न रखना। उन लोगों के शरीर से भी प्रेम न करो और न उनके शरीर की इच्छा करो, जो हमें प्रिय हैं। यह जीवन हमारा शिक्षक है और इसकी मृत्यु द्वारा केवल नये शरीर धारण करने का अवसर होता है। शरीर हमारा शिक्षक है किन्तु आत्मघात करना मूर्खता है, क्योंकि इससे 'शिक्षक' ही मर जाएगा और उसका स्थान दूसरा शरीर ग्रहण कर लेगा। इस प्रकार जब तक हम शरीर-बुद्धि से मुक्त होना नहीं सीख लेते, हमें उसे रखना ही होगा। अन्यथा एक को खोने पर हम दूसरा प्राप्त करेंगे। तथापि हमें शरीर से तादात्म भाव न रखना चाहिए, अपितु केवल एक साधन के रूप में देखना चाहिए, जिसका पूर्णता प्राप्त करने में उपयोग किया जाता है।
श्रीरामभक्त हनुमानजी ने इन शब्दों में अपने दर्शन का सारांश कहा, ''मैं जब देह से अपना तादात्म्य करता हूँ तो मैं आपका दास हूँ? अपसे सदैव पृथक् हूँ। जब मैं अपने को जीव समझता हूँ तो मैं उसी दिव्य प्रकाश या आत्मा की चिनगारी हूँ जो कि आप हैं। किन्तु जब अपने को आत्मा से तदाकार करता हूँ तो मैं और आप एक ही हो जाते हैं।''
देहबुद्ध्या तु दासोऽस्मि जीवबुद्धबा त्वदंशकमू।
आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहं इति मे निश्चिता मति:।।
इसलिए ज्ञानी केवल आत्मा के साक्षात्कार का ही प्रयत्न करता है और कुछ नहीं।
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