धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
भौतिक विज्ञान की दोनों सीमाएँ (प्रारम्भ और अन्त) अध्यात्म विद्या द्वारा आवेष्टित हैं। यही बात तर्क के विषय में है। वह अतर्क से प्रारम्भ होकर फिर अतर्क में ही समाप्त होता है। यदि हम जिज्ञासा को इन्द्रियजन्य बोध के क्षेत्र में बहुत दूर तक ले जायँ तो हम बोध से परे के एक स्तर पर पहुँच जाएंगे। तर्क तो वास्तव में स्मृति द्वारा सुरक्षित, संगृहीत और वर्गीकृत बोध ही है। हम अपने इन्द्रिय-बोध से परे न तो कल्पना कर सकते हैं और न तर्क कर सकते हैं। तर्क से परे कोई भी वस्तु इन्द्रियज्ञान का विषय नहीं हो सकती है। हम तर्क से सीमाबद्ध रूप को अनुभव करते हैं, फिर भी वह हमें एक ऐसे स्तर पर ले जाता है, जहाँ हम उससे कुछ परे की वस्तु की भी झलक पाते हैं। तब प्रश्न उठता है कि क्या मनुष्य के पास तर्कोपरि कोई साधन है? यह बहुत सम्भव है कि मनुष्य में तर्क से परे पहुँचने का सामर्थ्य हो, वास्तव में सभी युगों में सन्तों ने अपने इस सामर्थ्य की अवस्थिति निश्चित रूप से कही है। किन्तु वस्तुओं के स्वभावानुसार आध्यात्मिक विचारों तथा अनुभव को तर्क की भाषा में अनूदित करना असम्भव है और इन सभी सन्तों ने अपने आध्यात्मिक अनुभव को प्रकट करने में अपनी असमर्थता घोषित की है। सचमुच भाषा उन्हें शब्द नहीं दे सकती, ताकि केवल यह कहा जा सके कि ये वास्तविक अनुभव हैं और सभी के द्वारा प्राप्त किये जा सकते हैं। केवल इसी प्रकार वे (अनुभव) जाने जा सकते हैं, किन्तु वे कभी वर्णित नहीं किये जा सकते। धर्म वह विज्ञान है जो मनुष्य में स्थित अतीन्द्रिय माध्यम से प्रकृति में स्थित अतीन्द्रिय का ज्ञान प्राप्त करता है। अब भी हम मनुष्य के विषय में बहुत कम जानते हैं, फलत: विश्व के सम्बन्ध में भी बहुत कम जानते हैं। जब हम मनुष्य के विषय में और अधिक ज्ञान प्राप्त करेंगे, तब हम विश्व के विषय में सम्भवत: और अधिक जान जाएँगे। मनुष्य सभी वस्तुओं का सारसंग्रह है और उसमें संपूर्ण ज्ञान निहित है। विश्व के केवल उस अति क्षुद्र भाग के विषय में, जो हमारे इन्द्रिय-बोध में आता है, हम कोई तर्क ढूँढ सकते हैं, हम किसी मूलभूत सिद्धान्त के लिए कोई तर्क कभी नहीं उठा सकते। किसी वस्तु के लिए तर्क उठाना केवल मात्र उस वस्तु का वर्गीकरण करना और दिमाग के एक दरबे में उसे डाल लेना है।
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