धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
जब हम किसी नये तथ्य को पाते हैं तो हम तुरन्त उसे किसी प्रचलित प्रवर्ग में डालने की चेष्टा करते हैं और इसी प्रयत्न का नाम तर्क है। जब हम उस तथ्य को किसी वर्ग-विशेष में रख पाते हैं तो कुछ सन्तोष मिलता है, किन्तु इस वर्गीकरण के द्वारा हम भौतिक स्तर से ऊपर कभी नहीं जा सकते। मनुष्य इन्द्रियों की सीमा के परे पहुँच सकता है, यह बात प्राचीन युगों में निश्चित रूप से प्रमाणित हुई थी। 5000 वर्ष पूर्व उपनिषदों ने बताया था कि ईश्वर का साक्षात्कार इन्द्रियों द्वारा कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता। यहाँ तक तो आधुनिक अज्ञेयवाद स्वीकार करता है, किन्तु वेद इस नकारात्मक पक्ष से और परे जाते हैं और स्पष्टतम शब्दों में दृढ़ता के साथ कहते हैं कि मनुष्य इस इन्द्रियबद्ध जड़ जगत् के परे पहुँच सकता है एवं अवश्य पहुँचता है। वह मानो इस विशाल हिमराशि रूप जगत् में रन्ध्र पा सकता है और उसके द्वारा निकलकर जीवन के पूर्ण महासागर तक पहुँच सकता है। इन्द्रिय सम्बन्धी संसार का इस प्रकार अतिक्रमण करके ही वह अपने सत् स्वरूप तक पहुँच सकता है और उसका साक्षात्कार कर सकता है।
ज्ञान कभी इन्द्रियजन्य ज्ञान नहीं होता। हम ब्रह्म को विषयतया जान नहीं सकते, किन्तु हम पूर्णतया ब्रह्म ही हैं, उसके एक खण्ड मात्र नहीं। अशरीरी वस्तु कभी विभाजित नहीं की जा सकती। आभासिक नानात्व काल और देश में दृष्टिगत होनेवाला है, जैसा हम सूर्य को लाखों ओस-बिन्दुओं में प्रतिबिम्बित देखते हैं, यद्यपि हम जानते हैं सूर्य एक है, अनेक नहीं। ज्ञान में हमें नानात्व त्यागना होता है और केवल एकत्व का अनुभव करना होता है। यहाँ विषयी, विषय, ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय, तू वह अथवा मैं नहीं है, केवल एक पूर्ण एकत्व ही है! हम सदैव वही हैं।
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