कविता संग्रह >> कह देना कह देनाअंसार कम्बरी
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आधुनिक अंसार कम्बरी की लोकप्रिय ग़जलें
कविता
करने के लिये अगर हिन्दी में छंद, पद, दोहे, सोरठा, गीत इत्यादि विधायें
हैं तो उर्दू में ग़ज़ल, नज़्म, मर्सिया, रुबाई, मुख़म्मस, मुसद्दस आदि विधाये
हैं। यदि हिन्दी में मात्रायें होती हैं तो उर्दू में रुक्न होते हैं। यदि
किसी एक भाषा के पद्य को किसी दूसरी भाषा में प्रयोग किया जाये तो रचनाकार
की ईमानदारी इसी में है कि जो रचना की जा रही है उसमें उस भाषा के छंद
विधान का ध्यान रखा जाये अन्यथा वह मान्य नहीं होगी, यह कटु सत्य है। यदि
हिन्दी में ग़ज़लें, नज़्में कही गई हैं तो वहीं उर्दू में भी गीत, दोहे, छंद
इत्यादि कहे गये हैं।अब प्रश्न उठता है कि ऐसी रचनाओं को मान्यता कौन
देगा, आलोचक, समालोचक अथवा जिस भाषा में रचना की गई है उस भाषा के छंद
विधान के जानकार या पाठक ..? किसी भी भाषा में कही गई रचना स्थापित या
मान्य तब होती है, जब रचना जिस भाषा की विधा में कही जाये उस भाषा के छंद
विधान के मापदंडो पर खरी उतरें। अगर ऐसा नहीं होता है तो कुछ भी कहा जाये
उसको स्वीकृति नहीं मिलेगी, उस पर चाहे जितना आलोचक, समालोचक क़लम क्यूँ न
चलायें। रचना किसी के मान लेने या न मान लेने से स्थापित नहीं होती, सही
रचना स्वंम स्थापित हो जाया करती है। उसके लिये किसी के कहने-सुनने या
लिखने-पढ़ने की आवश्यकता नहीं होती। उदाहरणतः आप दोहा ले लीजिये यदि उर्दू
में कहा गया दोहा मात्रिक मानदंडो पर पूरा न उतरे तो क्या उसको दोहा
कहेंगे ..? इसी प्रकार उर्दू में गीत कहे जाते हैं उन गीतों को नग़मा तो
कहा जा सकता है, गीत नहीं, इसीलिए उन गीतों को कोई भी गीतकार मान्यता नहीं
देता, इसी प्रकार हाइकू जो एक जापानी कविता की विधा है, में कविता की जाये
तो उसमें भी यही नियम लागू होगा। बस इसी तरह ग़ज़ल पर भी उक्त नियम के तहत
मापदण्ड लागू होंगे। यदि कोई हठधर्मी पर उतर आये तो इससे किसी भाषा या
उसके व्याकरण का दोष नहीं होगा। अब अगर हिन्दी ग़ज़ल को मान्यता दिलाना है
तो ग़ज़ल के सारे मापदण्ड कुछ भाषाई छूट के साथ पूरे करने होंगे अन्यथा
हिन्दी ग़ज़ल की नयी नियमावली बनाना होगी और उसका हिन्दी साहित्य के
विव्दानों व्दारा प्रमाणन आवश्यक होगा। तब कहीं जाके हिन्दी साहित्य के
धरातल पर हिन्दी ग़ज़ल को स्थापित करने की मंशा पूरी होगी और पिंगल शास्त्र
में उसको शामिल करना होगा। यह प्रक्रिया अत्यंत जटिल है। अतः मेरा तो
मशवरा यही है कि जिस प्रकार गुजराती, पंजाबी, बंगला व अन्य भाषाओं में
ग़ज़लें कही जा रही हैं, वैसे ही हिन्दी में भी कही जायें और उनमें ग़ज़ल विधा
के छंद विधान का पूरा ध्यान रखा जाये तो ग़ज़लें अपने आप स्थापित हो
जायेंगी, उसके लिये किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। संतोष की बात है
कि ऐसा अनेका-नेक ग़ज़लगो कवि कर रहे हैं और ख़ूब पसंद किये जा रहे जा रहे
हैं। उनसे उर्दू वाले भी लाभान्वित हो रहे हैं। आप हिन्दी ग़ज़ल के आधुनिक
शैली के पुरोधा दुष्यंत कुमार को ही ले लीजिये उन्होंने ग़ज़ल में नई भाषा
शैली को जन्म दिया और उससे उर्दू वालों ने भी प्रभावित होकर ग़ज़लें कहीं
हैं तथा कामयाब भी हैं। क्यूँकि उर्दू के लोग फ़ने-शाइरी से परिचित हैं
इसलिये उन्हें स्थापित और विस्थापित होने का भय नहीं सताता है। मेरा तो
यही मानना है कि यदि हिन्दी ग़ज़ल कहते समय रचनाकार आरोह-अवरोह का ध्यान रखे
तो ग़ज़ल अपने आप बहर में हो जायेगी। संतोष का विषय है कि इस झेत्र में ख़ूब
काम हो रहा है। जैसे ‘ग़ज़ल के बहाने’ – डॉ. दरवेश भारती, ‘अभिनव प्रयास’ –
अशोक अंजुम, ‘काव्या’ – हस्तीमल ‘हस्ती’, ‘अर्बाबे-क़लम’ – इक़बाल बशर की
पत्रिका में “स्व. डॉ. कैलाश गुरु ‘स्वामी’ के अरूज़ पर धारावाहिक आलेख”,
स्वामी श्यामानंद ‘सरस्वती’ आदि भी इस झेत्र में काम कर रहे हैं और इसी
कड़ी में ‘ग़ज़ल गरिमा’ के माध्यम से भानुमित्र भी शामिल हुये हैं। यह हिन्दी
ग़ज़ल के लिये शुभ संकेत है। यदि इसी प्रकार हिन्दी ग़ज़ल पर काम होता रहा तो
एक दिन हिन्दी ग़ज़ल साहित्य के आकाश पर नक्षत्र नहीं बल्कि सूर्य बन कर
रौशनी बिखेरेगी।
मेरे
इस ग़ज़ल संग्रह में जिन प्रिय अनुजों ने विशेष रुचि दिखाई उनमें देवल आशीष,
सुबोध श्रीवास्तव, मनीष यादव ‘मीत’, मुकेश सिंह, सुनील शुक्ल, श्रीमती
अलका मिश्रा, अनिल कुमार सविता ‘सिद्धन’ आदि का मैं आभारी हूँ। यह रचनाकार
आगे चलकर साहित्य के झितिज पर चमकें ऐसी मेरी कामना है। साथ ही भाई मनु
भ्रद्व्दाज जी का विशेष आभारी हूँ, जिन्होंने माण्डवी प्रकाशन से संग्रह
प्रकाशन में मनोयोग से सहयोग किया। अपने पहले काव्य संग्रह ‘अंतस का
संगीत’ की सराहना से उत्साहित होकर मैं इस संग्रह में अपनी कुछ ग़ज़लें सुधि
पाठकों को अवलोकन हेतु प्रस्तुत करते हुये हर्ष का अनुभव कर रहा हूँ। आशा
है कि आप अपने बहुमूल्य विचारों से मुझे अवगत कराने की अनुकम्पा करेंगे।
- अंसार क़म्बरी
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