धर्म एवं दर्शन >> मरणोत्तर जीवन मरणोत्तर जीवनस्वामी विवेकानन्द
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ऐसा क्यों कहा जाता है कि आत्मा अमर है?
दुःख-दैन्य में जन्म लेनेवालों में से कितने उच्चतर जीवन बनाने का कष्टकर
प्रयत्न करते हैं और कितने -उससे अधिक संख्या में- जिस परिस्थिति में रखे
जाते है, उसी के शिकार हो जाते हैं? बुरी परिस्थिति में बलात् जन्म दिये जाने
के कारण जो अधिक बुरे और दुष्टतर बन जाते हैं, उन्हें भविष्य में उनके
जीवनकाल की दुष्टता के लिए क्या पारितोषिक मिलना चाहिए? तब तो मनुष्य यहाँ
जितना ही अधिक दुष्ट होगा, उतना ही इस जन्म के पश्चात् उसे सुखोपभोग प्राप्त
होगा।
मानव-आत्मा की गरिमा और स्वतन्त्रता को प्रतिष्ठित करने के लिए और इस संसार
में विद्यमान असमानता और भयानक दुःखों के अस्तित्व को समझाने के लिए कुल भार
उसके यथार्थ कारण - हमारे निज के स्वतन्त्र कृत्यों या ''कर्म'' - पर रखने के
सिवा और कोई दूसरा मार्ग नहीं है। इतना ही नहीं, बल्कि आत्मा का शून्य
(अस्तित्वहीन वस्तु) से उत्पन्न किये जाने का सिद्धान्त अवश्यमेव हमें
''दैववाद और प्रारब्ध-लेख'' की ओर ले जायगा, और 'दयानिधान परमपिता'' ईश्वर के
बदले हमारे सामने पूजा के लिए भयंकर, निर्दयी और सदा रुष्ट ईश्वर स्थापित कर
देगा। और जहाँ तक धर्म की भलाई या बुराई करने की शक्ति का सम्बन्ध है, उसमें
तो यह उत्पन्न की हुई आत्मा का सिद्धान्त परिणाम मे ''दैव और प्रारब्धलेख''
के वादों की ओर ले जाकर उस भयानक धारणा के लिए उत्तरदायी बनता है, जो ईसाईयों
और मुसलमानों में प्रचलित है कि मूर्तिपूजकों को तलवार के घाट उतार देना
(बुतपरस्तों को कत्ल कर देना) न्यायसंगत है। और उसी के कारण सभी वीभत्स काण्ड
हुए हैं और अब तक हो रहे हैं।
परन्तु न्यायमतवादी तत्ववेत्ताओं ने पुनर्जन्म के पक्ष में सदैव एक तर्क
उपस्थित किया है, जो हमें निश्चयात्मक प्रतीत होता है, वह तर्क यह है कि
''हमारे अनुभव लुप्त या नष्ट नहीं किये जा सकते।'' - हमारी कृतियाँ (कर्म)
यद्यपि देखने में लुप्त-सी हो जाती हैं तथापि ''अदृष्ट'' बनी हुई रहती हैं और
अपने परिणाम में ''प्रवृत्ति'' का रूप धारण करके पुन: प्रकट होती हैं। छोटे
छोटे बच्चे भी कुछ प्रवृत्तियों को - उदाहरणार्थ, मृत्यु का भय अपने साथ लेकर
आते हैं।
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