व्यवहारिक मार्गदर्शिका >> नया भारत गढ़ो नया भारत गढ़ोस्वामी विवेकानन्द
|
3 पाठकों को प्रिय 91 पाठक हैं |
संसार हमारे देश का अत्यंत ऋणी है।
अतएव हर एक स्त्री को, हर
एक पुरुष को और सभी को ईश्वर के ही समान देखो।
''मैंने इतनी तपस्या करके यही सार समझा है कि जीव जीव में वे अधिष्ठित
हैं, इसके अतिरिक्त ईश्वर और कुछ भी नहीं। जो जीवों पर दया करता है, वही
व्यक्ति ईश्वर की सेवा कर रहा है।'' यदि तुम अपने भाई मनुष्य की, व्यक्त
ईश्वर की, उपासना नहीं कर सकते तो उस ईश्वर की कल्पना कैसे कर सकोगे, जो
अव्यक्त है? यदि ईश्वरोपासना के लिए मंदिर निर्माण करना चाहते हो तो करो,
कितु सोच लो कि उससे भी उच्चतर, उससे भी महान् मानवदेहरूपी मंदिर तो पहले
से ही मौजूद है।
अपने तन, मन और वाणी को
'जगद्धिताय' अर्पित करो। तुमने पढ़ा है, 'मातृदेवो
भव, पितृदेवो भव' 'अपनी माता को ईश्वर समझो, अपने पिता को ईश्वर समझो'
परंतु मैं कहता हूँ ‘दरिद्रदेवो भव, मूर्खदेवो भव’ गरीब, निरक्षर, मूर्ख
और दुःखी, इन्हें अपना ईश्वर मानो। इनकी सेवा करना ही परम धर्म समझो।
मैं अच्छी तरह जानता हूँ,
भारतमाता अपनी उन्नति के लिए अपने श्रेष्ठ
संतानों की बलि चाहती है। संसार के वीरों को और सर्वश्रेष्ठों को
'बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय' अपना बलिदान करना होगा। असीम दया और प्रेम से
परिपूर्ण सैकड़ों बुद्धों की आवश्यकता है।
मनुष्य, केवल मनुष्य भर
चाहिए। बाकी सब कुछ अपने आप हो जायगा। आवश्यकता है
वीर्यवान, तेजस्वी, श्रद्धासंपन्न और दृढ़विश्वासी निष्कपट नवयुवकों की।
ऐसे सौ मिल जायँ, तो संसार का कायाकल्प हो जाय। पहले उनका जीवननिर्माण
करना होगा, तब कहीं काम होगा। जो सच्चे हृदय से भारतीय कल्याण का व्रत ले
सके तथा उसे ही जो अपना एकमात्र कर्तव्य समझे - ऐसे युवकों के साथ कार्य
करते रहो। उन्हें जागृत करो, संगठित करो तथा उनमें त्याग का मंत्र फूँक
दो। भारतीय युवकों पर ही यह कार्य संपूर्ण रूप से निर्भर है।
मैंने तो इन नवयुवकों का
संगठन करने के लिए जन्म लिया है। यही क्या,
प्रत्येक नगर में सैकड़ों और मेरे साथ सम्मिलित होने को तैयार हैं, और मैं
चाहता हूँ कि इन्हें अप्रतिहत गतिशील तरंगों की भांति भारत में सब ओर
भेजूँ, जो दीन-हीनों एवं पददलितों के द्वार पर सुख, नैतिकता, धर्म एवं
शिक्षा उँड़ेल दे। और इसे मैं करूँगा, या मरूँगा।
|