उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
महिमा स्कूल से कुछ अन्तर पर नाईवाड़ा के एक अच्छे, खुले मकान में रहती थी और घर तथा पड़ोस में वह आदर से देखी जाती थी। स्कूल में और स्कूल के बाहर भी उसके परिचित उसको महिमाजी कहकर संबोधित करते थे।
स्कूल में भी तथा घर के पड़ोसियों में भी वह विधवा समझी जाती थी और उससे वर्तालाप करते हुए सब परिचित उसके ससुराल तथा पति का उल्लेख करने में संकोच करते थे।
महिमा के साथ मकान की ऊपर की मंजिल में उसकी छोटी बहन गरिमा अपने पति और बच्चों के साथ रहती थी। गरिमा का पति कुलवन्तसिंह वायु सेना में मेजर था। वह स्क्वाड्रन लीडर था। उसके कमाण्ड में सात हवाई जहाज़ थे और उनमें काम करने वाले इक्कीस वायु-सेना के सैनिक काम करते थे। स्क्वाड्रन लीडर कमाण्डर कुतलवन्तसिंह का कार्यालय तो पालम में था, इस पर भी वह अपने परिवार के साथ करोलबाग में महिमा के मकान में रहता था।
महिमा हिमाचल प्रदेश बिलासपुर की रहनेवाली थी। उसने चण्डीगढ़ विश्वविद्यालय से इतिहास में एम. ए. तथा बी-एड. किया था। उसे दिल्ली में प्रधानाचार्य के पद पर नियुक्त हुए पांच वर्ष हो चुके थे। गरिमा का विवाह हिमाचल प्रदेश में ही मण्डी क्षेत्र के रहने वाले एक राजपूत परिवार के कुलवन्तसिंह से हुआ और उसकी ड्यूटी दिल्ली में लगी तो वह परिवार सहित महिमा के मकान में आकर रहने लगा था।
गरिमा को महिमा के साथ रहते हुए भी चार वर्ष हो चुके थे। उसके विवाह को छः वर्ष हो चुके थे और जब वह दिल्ली आई थी तो अपने साथ एक शिशु को लायी थी। यह लड़का था और इसकी दादी ने इसका नाम बलबन्त रखा था। दिल्ली आकर गरिमा के लड़की उत्पन्न हुई थी।
एक दिन कुलवन्त अपना काम पालम हवाई अड्डे पर समाप्त कर घर आया तो वह मकान की ऊपर की मंजिल पर अपने परिवार में जाने के स्थान, मकान की भूमि की मंजिल पर महिमा के फ्लैट में चला गया। मकान में बैठक घर में वह प्रविष्ठ हुआ तो महिमा स्कूल से आ चाय ले रही थी। उसने मेजर साहब को आते देखा तो चाय का निमन्त्रण दे दिया।
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