उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
कुलवन्त ने सोफा पर बैठते हुए कहा, ‘‘दीदी! मेरे स्क्वाड्रन में एक नये पायलट की नियुक्ति हुई है। कुछ दिन हुए मेरे स्क्वाड्रन के एक पायलट के साथ दुर्घटना होने से उसका देहान्त हो गया था और उसका स्थान रिक्त पड़ गया था। एक नया ‘रिक्रूट’ उस स्थान पर आया है। उसका नाम है अमृतलाल।’’
अमृतलाल का नाम सुनते ही महिमा ने हाथ में पकड़ा प्याला सासर में रख दिया और अपने जीजा कुलवन्तसिंह का मुख देखने लगी।
कुलवन्तसिंह गम्भीर भाव में बैठा रहा। एकाएक महिमा अपनी घबराहट को छुपाने के लिये भर्रायी आवाज़ में घर की नौकरानी को बुलाने लगी, ‘‘सुखिया! ओ सुखिया!!’’ सुखिया एक प्रौढ़ावस्था की विधवा स्त्री थी। यह दिल्ली के एक देहात की रहने वाली थी और जब से महिमा दिल्ली आई थी, उसकी सेवा में थी। सुखिया आयी तो महिमा ने कहा, ‘‘चाय के लिए और पानी स्टोव पर रख दो और ऊपर से गरिमा बहन को कहो कि मेजर साहब नीचे चाय ले रहे हैं और वह भी आ जाये।
‘‘हाँ, तो जीजाजी! यह आपके पायलट साहब कहाँ के रहने वाले हैं?’’
‘‘उसके सर्विस-रोल पर तो लिखा है श्रीनगर कश्मीर। परन्तु सूरत-शक्ल से वह कश्मीरी प्रतीत नहीं हुआ। वह मेरे सामने ‘सैल्यूट’ कर खड़ा हुआ तो मैं एक नज़र उसको देख पूछने लगा, ‘‘मिस्टर अमृत! आप कश्मीरी प्रतीत होते नहीं?’
‘‘वह चुप कर सामने खड़ा रहा। मैंने मेज़ की दूसरी ओर रखी कुर्सी पर उसे बैठने का संकेत कर पुनः पूछा, ‘मालूम होता है कि आप ‘डौमिसाइल्ड’ (बसे हुए) कश्मीरी हैं?’
‘‘उसने एक शब्द में उत्तर दिया, ‘जी’। और मेरे सामने बैठ गया।
‘‘मैंने उसका सर्विस-रोल देखकर पूछा, ‘‘आप ब्राह्मण हैं?’
‘‘अब उसने मुस्कराते हुए कहा, ‘जी! ब्राह्मण का बेटा होने के नाते।’
‘पूर्वज कहाँ के रहने वाले थे?’ मैंने पुनः पूछा। वह कहने लगा, ‘‘हिमाचल प्रदेश के। बिलासपुर खास का रहने वाला हूँ।’
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