उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘दस मिनट का ही समय था। इसी में कोई काम-चलाऊ कहानी बनानी थी। वह मैंने बना ली।
‘‘दस मिनट गुजरने से पूर्व ही वही लड़की भीतर आयी और बोली, ‘गाँव के चौधरी आपसे मिलना चाहते हैं।’’
‘‘उसे यहाँ ही भेज दो।’ मैंने नाटक करते हुए कहा।
‘‘वह लड़की बोली, ‘मेरा भाई भी जंग में गया हुआ है।’
‘मैं भी तो तुम्हारा भाई हूँ।’
‘‘उसने उत्तर नहीं दिया और चौधरी भीतर चला आया। उसने आते ही पूछा, ‘क्या तुम मुसलमान हो?’
‘हाँ, चचा जान! बैठ जाओ। मैं तुम्हें अपना नाम और पता बताता हूँ।’
‘नहीं, तुम पहले मुसलमान होने का सबूत दो।’
‘‘मैं चटाई से उठा और पतलून खोल सुन्नत दिखाने लगा। उसे देख वह बोला, ‘ठीक है। नाम बताओ?’
‘असगर। मैं कश्मीरी हूँ। वहाँ काजीपुर का रहने वाला हूँ। हिन्दुस्तानी हवाई जहाज में नौकरी करता था। हमें यहाँ हमला करने को भेजा गया था। मैंने पाकिस्तान में उतरने के लिये जहाज को खुद तबाह किया है और छतरी से नीचे उतर आया हूँ।’
‘‘चौधरी ने कहा, ‘तुम्हारा काम तमाम करने के लिये लोग बाहर खड़े हैं। मगर रमजान की बीबी कह रही है कि तुम खुदा की कसम खाकर कह रहे हो कि तुम मुसलमान हो।’
‘चचा जान!’ मैंने कहा, ‘वह तो तुमने देख ही लिया है।’
‘इस पर भी तुम इस मकान से बाहर नहीं जा सकते। मैं अभी यहाँ के चौकीदार को थाने में भेजता हूँ। वहाँ से पुलिस आयेगी और हम तुम्हें उसके हवाले कर देगें।’
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