उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘मैं तैयार हो गया और फर्श साफ करने के लिये कोट उतार दुकानदार से पूछने लगा, ‘इसे कहाँ रखूँ?’
‘‘इस पर सूसन बोल उठी, ‘तुम तो पढ़े-लिखे व्यक्ति प्रतीत होते हो?’ इसने अंग्रेजी में पूछा।
‘यस मैडम।’ मैंने कहा।
‘चलो, मैं तुम्हें काम बताऊँगी।’
‘‘मैंने इसकी ओर देखा तो यह फातिमा से अच्छी मालूम हुई। साथ ही यह विदेशी थी। मैं पाकिस्तान से निकलने का साधन ढूँढ़ रहा था। अतः मैंने उसी समय कोट पहन लिया और कहा चलिये।’
‘‘वह विस्कुट, ड्राई फ्रूट, साबुन और अन्य श्रृंगार की सामग्री खरीद चुकी थी। उस समय उससे खरीदा सामान बँध रहा था और वह दाम दे रही थी। मैंने उसके सामान का बण्डल उठाया और तैयार हो गया। स्टोर के बाहर टैक्सी खड़ी थी। उसने मुझे ड्राईवर के पास बैठ जाने को कहा और स्वयं टैक्सी में पीछे बैठ गई। सैसिल होटल में हम पहुँचे तो मैं सामान उठा उसके पीछे-पीछे उसके कमरे में जा पहुँचा।
‘‘जब सामान रख दिया तो वह एक कुर्सी पर बैठने को कह बोली, ‘मैं फ्रांस जा रही हूँ। मेरे साथ चलोगे?’
‘‘यस मैडम।’
‘कितना पढ़े हो?’
‘‘मैंने बताया कि मैं इन्जीनियरिंग पास हूँ। मेरे पास हवाई जहाज के पायलट का सर्टिफिकेट है और...।’’ अपने भारतीय सेना के आदमी होने की बात कहना चाहता था, परन्तु कुछ विचार कर चुप रहा।
‘‘इस पर वह पूछने लगी, ‘और क्या?’
‘यदि आप मुझे पाकिस्तान से बाहर ले जायेंगी तब बताऊँगा।’
‘क्या मतलब?’
‘‘मैंने बात बदलने के लिये कहा, ‘मेरे पास बाहर जाने का पासफोर्ट नहीं।’
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