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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592
आईएसबीएन :9781613011072

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


‘‘इन्द्र इस पतिव्रता स्त्री से पहचाना जाने पर झेंपा, परन्तु उसने कह दिया, ‘सुन्दरी! मैं तुम पर मोहित हो गया हूँ और तुमसे सहवास की भिक्षा माँगता हूँ।’’

‘‘ऋषि-पत्नी इन्द्र को अपने पर मुग्ध देख, अपने सौन्दर्य पर गर्व करती हुई सहवास के लिये तैयार हो गयी।

‘‘सहवास के उपरान्त इन्द्र वहाँ से विदा होने लगा तो ऋषि वहाँ पहुँच गये ऋषि इन्द्र को छद्म वेश में देख अति कुद्ध हो उठे। उन्होंने इन्द्र को शाप दे दिया। उसने कहा, ‘इस पर स्त्री-गमन के पाप के कारण तुम पुरुष कर्म करने के अयोग्य हो जाओगे।

‘‘इन्द्र वहाँ से भागा और सीधा देवलोक में पहुँचा तो अश्विनी कुमारों से अपनी चिकित्सा कराने लगा।

‘‘जब इन्द्र कुटिया से चला गया तो ऋषि ने पत्नी से पूछा, ‘तुम पहचान नहीं सकीं इस धूर्त्त को?’

‘पहचान गयी थी, महाराज! परन्तु मैं इनके भोज से प्रभावित हो इनको आत्म-समर्पण कर बैठी हूँ।’

‘तो तुमने यह पाप-कर्म किया है?’

‘‘अब गौतम-पत्नी को पश्चात्ताप लगने लगा। इस कारण वह अपने पति से क्षमा माँगने लगी। ऋषि तो उसे भस्म कर देना चाहता था, परन्तु अहल्या को पश्चात्ताप करते देख उसने उसका त्याग-मात्र ही किया।

‘‘तब से ऋषि यहाँ से दो कोस के अन्तर पर अपने नवीन आश्रम में रहते हैं और उनकी व्यक्ता पत्नी वहाँ रहती हैं। महर्षि के दर्शन करने वाले अब नये आश्रम मे जाते हैं और यह आश्रम सूना रहता है।’’

राम इस कथा को सुन अति दुःखी हुआ। उसने महर्षि से पूछा, ‘‘गुरुजी! माताजी के दर्शन कहाँ होगे?’’

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