उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘वह बहुत दुःखी हैं और अपनी भूल का घोर प्रायश्चित्त कर चुकी हैं।’’
विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को उसी आश्रम के एक कोने में बनी एक कुटिया में ले गये। वहाँ एक अति हीन-क्षीण तपस्विनी आसन पर शोक-मुद्रा में पत्थरवत् बैठी हुई थी। राम ने उस दुःखी स्त्री को देख झुककर नमस्कार किया और कहा, ‘‘माताजी! मैं अयोध्या नरेश दशरथ-पुत्रराम हूँ। मेरे योग्य सेवा बताइये।’’
अहिल्ला इस सहानुभूतिपूर्ण वाक्य को सुन राजकुमारों का मुख देखती रह गयी। वह कुछ कह नहीं सकी। उसकी आँखों से पश्चात्ताप के अश्रु गिरने लगे।
विश्वामित्र ने उसके मन की व्यथा के विषय मे राम को कहा, ‘‘महर्षि गौतम इसकी आप घोर तपस्या पर भी सन्तुष्ट प्रतीत नहीं होते।’’
‘‘गुरुजी! उनको आप समझाइये। हम समझते हैं कि माताजी अपने पाप का पर्याप्त प्रायश्चित्त कर चुकी है।’’
विश्वामित्र को एक बात सूझी। उन्होंने अपने एक साथी मुनि को महर्षि गौतम के आश्रम में कहलवा भेजा कि विश्वामित्र आये हैं और महर्षि गौतम के दर्शन की अभिलाषा करते हैं। विश्वामित्र ने यह भी कहलवा भेजा कि उनके साथ अयोध्या नरेश महाराज दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण भी महर्षि को दर्शन की प्रार्थना कर रहे हैं।
बात बन गयी। महर्षि गौतम आये। आते ही उन्होंने विश्वामित्र को प्रणाम कर कह दिया, ‘‘भगवन्! मैं अब दूसरे आश्रम में रहता हूँ।’’
‘‘हम जानते हैं।’’ विश्वामित्र ने कहा, ‘‘परन्तु हम यहाँ आपके दर्शन की इच्छा करते थे। सो आपने यहाँ आकर अत्यन्त कृपा की है।
‘‘महर्षि! राजकुमार राम आपसे कुछ निवेदन करना चाहते हैं।’
गौतम ऋषि ने राम की ओर देख उसे आशीर्वाद दिया और कहा, ‘‘राजकुमार! बताओ, क्या चाहते हो?’’
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