उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘माताजी! आप अपनी पतोहू को बता कर ले आइये। मैं समझता हूँ कि यह मिलन अत्यन्त शुभ होना चाहिये।’’
सुन्दरी कुलवन्त की बातों को समझ रही थी और उसका अनुकरण करने के लिये उसने भी योजना बना कह दिया, ‘‘आप चाय लगवाइये। मैं अभी उसे बता कर ऊपर ले आती हूँ।
सुन्दरी नीचे उतर गयी। कुलवन्त ने सुखिया को कह दिया, ‘‘चाय लगा दो।’’
वहीं बैठकघर में ही तिपाइयाँ रख दीं गयीं और सुखिया उन पर खाने के लिये मिठाई इत्यादि लगाने लगी।
पाँच मिनट में सुन्दरी अकेली ही ऊपर आयी। उसके मुख पर शोक-मुद्रा स्पष्ट थी। गरिमा अमृत की माँ की बात समझ गयी।
इस पर भी वह भी अन्य दोनों के साथ सुन्दरी के मुख पर प्रश्न-भरी दृष्टि में देखने लगी।
सुन्दरी ने गरिमा के पास बैठते हुए कहा, ‘‘महिमा कहती है कि पहले ही दिन जब जीजाजी ने इनकी बात बतायी थी तो वह समझ गयी थी कि यह मेरे पुत्र ही है। अतः वह पिछले पाँच दिन से अपनी समस्या पर विचार करती रही है। अभी तक उसका यही निश्चय है कि ऐसे व्यक्ति से सम्बन्ध बनाने में क्या लाभ होता जो अपनी माँ को भी सात वर्ष तक धोखे में रख सकता है? अतः वह ऊपर नहीं आयी।’’
इतनी कठोर, परन्तु युक्तियुक्त बात सुन तो सब चुप कर गये। कुलवन्त एक सैनिक की भाँति स्थिर बुद्धि रखता था। उसने कह दिया, ‘‘ठीक है। वह ऊपर नहीं आती तो हम सब नीचे चल सकते हैं। मैं देखूँगा कि वह किस प्रकार हमें अपने मकान में नहीं आने देती?’’
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