उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
|
352 पाठक हैं |
भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘इस प्रकार नहीं बेटा!’’ सुन्दरी ने गम्भीर भाव बनाये हुए कहा, ‘‘पारिवारिक मामलों में बलपूर्वक कोई भी बात करनी ठीक नहीं। मुझे स्मरण है कि अमृत ने उसे पत्नी के रूप में चुन कर उसे राजी कर लिया था। अब भी वह पुनः वैसा ही कर सकता है। मेरा अभिप्राय है कि उसे समझा कर अपने घर ला सकता है।’’
‘‘पर माताजी! मैंने तो तब भी उसे समझाने-बुझाने की बात नहीं की थी। मैंने तब भी युक्ति से काम लिया था और अब भी युक्ति से ही काम ले सकता हूँ। पिछले पाँच दिन तक महिमा से मिलकर पुनः अपने घर बनाने के विषय पर मैंने विचार किया है और मैं इस परिणाम पर पहुँचा हूँ कि एक सैनिक, विशेष रूप में वायु-सेना में काम करने वाले सैनिक को, अपने मरने पर लम्बा-चौड़ा परिवार छोड़कर नहीं मरना चाहिये।’’
‘‘क्यों?’’ कुलवन्त ने मिठाई खाते हुए पूछ लिया।
‘‘तो आप नहीं जानते? प्रत्येक क्षण जब हम वायु में उड़ रहे होते हैं तो हम मौत से तकरार कर रहे होते हैं। ऐसी अवस्था में बाल-बच्चों के झगड़े में पड़ना नहीं चाहता।’’
‘मेरी सम्मति है कि चाय पी जाये, इससे मष्तिष्क काम करने लगेगा। इस समय तो यह मौत के भय से त्रसित हो रहा मालूम होता है।’’
गरिमा ने अपने पति और जीजाजी के लिये चाय बनानी आरम्भ कर दी। सुन्दरी ने बातों का सूत्र अपने हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘कुलवन्तजी! आपके स्क्वाड्रन में कुल कितने सैनिक हैं और उनमें कितने अविवाहित हैं?’’
‘‘माताजी! पहले तो मैं ही विवाहित हूँ। मेरी माताजी जब गरिमा को देखकर आयी थीं और इसकी प्रशंसा करने लगीं तो मैंने वही बात कहीं थी जो अमृतजी इस समय कह रहे हैं। इस पर मेरी माताजी ने कहा था कि यदि मेरा काम इतना भय-युक्त है तो विवाह शीघ्र ही करो और एक-दो सन्तान पैदा कर लो जिससे परिवार का सूत्र चलता रह सके।
|