उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
अमृतलाल ने कहा।
गरिमा ने कहा, ‘‘उसे कैसे ढूँढ़ा जाये? मैं समझती हूँ कि शीघ्र करना चाहिये। वह आत्म-हत्या भी तो कर सकती है।’’
कुलवन्त और अमृत द्वार के बाहर सड़क पर खड़ी जीप में सवार हो पुलिस चौकी की ओर चल दिये।
सायं आठ बजे के लगभग कुलवन्त लौटा। अमृत नीचे से ही छावनी मे अपने क्वार्टर को चला गया। गरिमा और सुन्दरी नीचे की मंजिल पर बैठकघर में बैठी कुलवन्त के लौटने की प्रतीक्षा कर रही थी। कुलवन्त आया तो सुन्दरी ने पूछा, ‘‘कहाँ गये थे मेजर साहब?’’
‘‘माताजी? पहले पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखाने गये थे। हमें भय था कि वह कहीं आत्म-हत्या न कर ले। हम यमुना पार तथा सड़को पर इधर-उधर घूमते रहे हैं। अमृत अपने क्वार्टर को चला गया है। उसके मन पर बहुत उल्टी प्रतिकिया हुई है।’’
‘‘मैं समझती हूँ कि महिमा आत्म-हत्या नहीं करेगी। वह अति बुद्धिशील लड़की है और बुद्धिशील व्यक्ति आत्म-हत्या नहीं करते। वह सड़कों पर भी घूम नहीं सकती। अवश्य किसी अपनी सहेली के घर जाकर छुपी बैठी है।’’ गरिमा ने अपना विचार बता दिया।
‘‘क्यों, गरिमा! कौन-सी सहेलियाँ है उसकी?’’
‘‘एक-दो को तो मैं जानती हूँ। परन्तु मैं समझती हूँ कि उसका पीछा करने की आवश्यकता नहीं। यदि वह किसी सहेली के घर गयी है तो कल स्कूल में अवश्य जायेगी। वहाँ उससे जाकर मिला जा सकता है।’’
सुन्दरी ने कहा, ‘‘आप दोनों आराम करिये और मेजर साहब को अमृत की चिन्ता करनी चाहिये।’’
‘‘मेरा विचार है कि मैं कल उससे मिल लूँ। तब आपकी योजना पर विचार कर लेंगे।’’
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