उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
कैकसी ऋषि के सौन्दर्य और अंगों की रेखायें देख मन्त्र-मुग्ध हो ऋषि से कामना पूर्ति की अभिलाषा में चुप खड़ी थी। ऋषि के सम्बोधन करने पर सचेत हो बोली, ‘‘भगवान्! वर चाहती हूँ।’’
‘‘माँगों। हमारी सामर्थ्य में हुआ तो देंगे।’’
‘‘भगवान्! मैंने आपके पुत्र धनाध्यक्ष को देखा है। वैसा ही पुत्र पाने की अभिलाषा से दो घड़ी से खड़ी हूँ।’’
‘‘परन्तु यह तो ईश्वर के अधीन है।’’
‘‘महाराज! ईश्वर की प्रेरणा से ही यहाँ आयी हूँ और आपकी सामर्थ्य को जानती हुई आपकी सेवा में उपस्थित हुई हूँ।’’
ऋषि स्वयं भी लड़की के यौवन और सौन्दर्य पर मुग्ध हो रहा था। इस कारण कुछ विचार कर बोला, ‘‘इस सामने आसन पर बैठ जाओ।’’
कैकसी आसन पर बैठती तो ऋषि ने अग्नि प्रदीप्त की और हवन आरम्भ कर दिया।
हवन समाप्त हुआ तो ऋषि ने शान्ति पाठ पढ़ा; तदनन्तर सामने बैठी लड़की को कहा, ‘‘अब उठकर मेरे बाई ओर आसन पर बैठ जाओ। हमने तुम्हें अपनी पत्नी के रूप में वर लिया है।
‘‘हम सन्तान विवाहित पत्नी को ही देते हैं। इस कारण मैंने तुमसे विवाह कर लिया है और अब तुम यही इस आश्रम में रह सकोगी।’’
जब कैकसी ऋषि के वाम कक्ष में रख आसन पर आ बैठी तो ऋषि ने उसका नाम उसके माता-पिता का स्थान पूछा।
कैकसी के मन में आया कि अनृत बोल, अपने-नाम-धाम को छुपा ले। परन्तु यह विचार कर कि पीछे सत्य प्रकट होने पर ऋषि कहीं शाप न दे दें, सत्य-सत्य अपना परिचय देकर बोली, ‘‘आपसे विवाह के अपरान्त मेरी संज्ञा ऋषि पत्नी की हो गयी है।’’
‘‘हाँ। चलो, कुटिया में हम तुम्हारी इच्छा अभी पूर्ण करेंगे।’’
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